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दशवैकालिकसूत्र गमन करने से प्रवचनहीलना, भाषादोष आदि होते हैं। (९) उच्च-नीचकुल में गमन उच्च कुल दो प्रकार के (१) द्रव्य-उच्च्कुल–प्रासाद, हवेली, आदि ऊंचे भवनों वाले कुल यानी घर। (२) भाव उच्चकुल–जाति, धन, विद्या आदि से समृद्ध व्यक्तियों के भवन। अवचकुल (द्रव्य से) तृणकुटी, झोपड़ी आदि द्रव्यतः अवचकुल या नीचा कुल हैं, तथा जाति, वंश, विद्या आदि से हीन व्यक्तियों के घर भाव से अवचकुल कहलाते हैं। साधु को सामुदानिक भिक्षा समभाव से उच्च-अवच सभी कुलों (घरों) से करनी चाहिए।२६। गृह-प्रवेश-विधि-निषेध
९९. पडिकुटुं कुलं न पविसे मामगं परिवजए ।
अचियत्तं कुलं न पविसे, चियत्तं पविसे कुलं ॥ १७॥ १००. साणी-पावारपिहियं अप्पणा नावपंगुरे ।
कवाडं नो पणोल्लेज्जा ओग्गहंसि अजाइया ॥ १८॥ १०१. गोयरग्गपविट्ठो उ वच्चमुत्तं न धारए ।
ओगासं फासुयं नच्चा, अणुनविय वोसिरे ॥१९॥ १०२. नीयदुवारं तमसं कोट्ठगं परिवजए ।
अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ॥ २०॥ १०३. जत्थ पुप्फाई बीयाई, विप्पइण्णाई कोट्ठए ।
अहुणोवलित्तं ओल्लं दह्णं परिवजए ॥ २१॥ १०४. एलगं दारगं साणं वच्छगं वा वि कोट्ठए ।
उल्लंधिया न पविसे विऊहित्ताण व संजए ॥ २२॥ [९९] साधु-साध्वी निन्दित (प्रतिक्रुष्ट) कुल में (भिक्षा के लिए) प्रवेश न करे, (तथा) मामक गृह (गृहस्वामी द्वारा गृहप्रवेश निषिद्ध हो, उस घर) को छोड़ दे। अप्रीतिकर कुल में प्रवेश न करे, किन्तु प्रीतिकर कुल में प्रवेश करे ॥ १७॥
[१००] (साधु-साध्वी, गृहपति की) आज्ञा लिये (अवग्रह-याचना किये) बिना सन से बना हुआ पर्दा (चिक) तथा वस्त्रादि से ढंके हुए द्वार को स्वयं न खोले तथा कपाट को भी (गृह में प्रवेश करने के लिए) न उघाड़े ॥ १८॥
[१०१] गोचराग्र (भिक्षा) के लिए (गृहस्थ के घर में) प्रविष्ट होने वाला साधु मल-मूत्र की बाधा न रखे। यदि गोचरी के लिए गृहप्रवेश के समय मल-मूत्र की बाधा हो जाए तो प्रासुक स्थान (अवकाश) देख (जान) कर, गृहस्थ की अनुज्ञा लेकर (मल-मूत्र का) उत्सर्ग करे ॥ १९॥
[१०२] जहां नेत्रों द्वारा अपने विषय को ग्रहण न कर सकने के कारण प्राणी भलीभांति देखे न जा सकें,
२६. जिनदास चूर्णि, पृ. १७२, १७३, हारि. वृत्ति, पृ. १६६