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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
१२५ जीव और अजीव दोनों को विशेषरूप से जानने वाला ही संयम को जान सकेगा ॥३६॥
[६८] जब साधक जीव और अजीव, दोनों को विशेषरूप से जान लेता है, तब वह समस्त जीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है ॥ ३७॥
[६९] जब (साधक) सर्वजीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है, तब वह पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है ॥ ३८॥
विवेचन ज्ञान का स्थान प्रथम क्यों?— यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र सम्यक् नहीं होता। सम्यग्ज्ञान होगा तो व्यक्ति श्रेय-प्रेय, हितकर-अहितकर तत्त्वों को छांट लेगा, चारित्र के साथ घुल जाने वाली विकृतियों को दूर कर देगा और वास्तविक रूप से सम्यक्चारित्र का पालन करेगा। दूसरी बात यह है कि साधक का जीव-अजीव का विज्ञान जितना सीमित होगा, दया (अहिंसा) आदि चारित्र की भावना उतनी ही संकुचित एवं मंद होगी। जीवों का व्यापक ज्ञान होने से उनके प्रति दयाभाव, मैत्री, आत्मौपम्यभाव उतना ही व्यापक और विकसित होगा। जीवों का व्यापक ज्ञान होने पर उनकी गति-आगति आदि का अन्तर तथा तत्सम्बद्ध पुण्य-पाप का अन्तर समझ में आएगा, और फिर आत्मविकास को रोकने वाले कर्मबन्ध का भी रहस्य मालूम पड़ेगा, जिससे साधुवर्ग की जिज्ञासा चतुर्गतिक संसार में जन्म-मरण के कारणभूत कर्मों के बंध को काटने
और कर्मावरण दूर करके आत्मा को शुद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त बनाने की होगी। तभी तो वह कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप का आचरण करेगा। इस दृष्टि से सम्यग्ज्ञान को प्राथमिकता दी गई है। ज्ञान से जीव के स्वरूप, संरक्षणोपाय और फल का बोध होता है। गीता में स्पष्टतः कहा गया है ज्ञान के समान कोई भी पवित्र वस्तु इस जगत् में नहीं है। ज्ञानरूपी अग्नि सर्वकर्मों को भस्म कर देती है। इसीलिए यहां कहा गया है
'पढमं नाणं तओ दया ।' अर्थात् —प्रथम जीवादि का ज्ञान होना चाहिए, तत्पश्चात् उनकी दया। जिससे स्व-पर का बोध हो, उसे ज्ञान कहते हैं।०८ यहां दया शब्द से उपलक्षण से समस्त अहिंसात्मक क्रियाओं का ग्रहण होता है।
सभी संयमी इस सिद्धान्त में स्थित— जो संयत हैं, अर्थात् १७ प्रकार के संयम को धारण किये हुए हैं, उन्हें सर्वजीवों का ज्ञान भी होता है। जिनका जीव-ज्ञान पूर्ण नहीं होता, उनका संयम भी पूर्ण नहीं होता। पूर्ण संयम (सर्वभूतसंयम) के बिना अहिंसा अधूरी है, वास्तव में सर्व भूतों के प्रति संयम ही अहिंसा है। यही कारण है कि जीव-अजीव के भेदज्ञाता निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग की दया जहां पूर्ण है, वहां जीव-अजीव के विशेष भेद से अनभिज्ञ अन्य मतानुयायी साधकों की दया वैसी व्यापक नहीं है। उनकी दया या तो मनुष्यों तक ही सीमित है, या फिर पशु
१०७. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १२१
(ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १६४ (ग) प्रथममादौ, ज्ञानं-जीवस्वरूप-संरक्षणोपाय-फलविषयं, ततः तथाविधज्ञान-समनन्तरं दया-संयमस्तदेकान्तोपादेयतया भावतस्तप्रवृत्तेः ।।
—हारि. वृत्ति, पत्र १५७ (घ) न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन! ॥
-भगवद्गीता ४/३८ १०८. 'ज्ञानं स्व-परस्वरूप-परिच्छेदलक्षमण् ।'
_आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. ३००