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संयम एवं जीवादि तत्त्वों के ज्ञान-श्रद्धान तथा तदनुसार उत्तरोत्तर आत्मविकास से सम्बन्धित चारित्रधर्म का वर्णन है, प्रस्तुत अध्ययन में उन्हीं मूलगुणों को परिपुष्ट एवं रक्षण करने वाले 'पिण्डैषणा'-विषयक उत्तरगुण का वर्णन किया गया है। साथ ही चतुर्थ अध्ययन में षड्जीवनिकाय के रक्षारूप भिक्षु-भिक्षुणी के आचार का वर्णन भी किया गया है, परन्तु आचार-पालन शरीर की स्थिति पर निर्भर है। साधु-साध्वी आचार का पालन अपने शरीर की रक्षा करते हुए ही कर सकते हैं। शरीर की रक्षा में आहार (पिण्ड) एक मुख्य कारण है। साधु-साध्वी के समक्ष एक ओर शरीर
की रक्षा का प्रश्न है, तो दूसरी ओर गृहीत महाव्रतों की सुरक्षा का भी प्रश्न है। अतः साधुवर्ग इन दोनों की सुरक्षा करता हुआ किस प्रकार से आहार ग्रहण करे ? यही वर्णन सभी पहलुओं से इस
अध्ययन में किया गया है। 0 भिक्षु अहिंसामहाव्रत की सुरक्षा के लिए न तो पचन-पाचनादि क्रिया करता है, और न किसी से
खरीद या खरीदवाकर आहार ले सकता है, तथा न किसी से अपने निवासस्थान (उपाश्रयादि) में आहार मंगवा सकता है, अतः पिण्डैषणा की शुद्धि के लिए भिक्षाचर्या का मार्ग ही सर्वोत्तम है,
जिसका प्रथम अध्ययन में वर्णन किया गया है। ___ निर्ग्रन्थ भिक्षु-भिक्षुणियों की भिक्षा सर्वसंपत्करी है, उनकी भिक्षा देह को पुष्ट बनाने या प्रमाद
अथवा आलस्य बढ़ाने के लिए नहीं, किन्तु दूसरे जीवों को लेशमात्र भी कष्ट पहुंचाए बिना आत्मा के पूर्ण विकास के लिए प्राप्त हुए देह-साधन से केवल कार्य लेने, धर्मपालन करने, तथा जीवनप्रवाह को ज्वलन्त रखने के लिए है। शरीर तो हाड़-मांस और मलसूत्र का भाजन है, नि:सार है, उसे तो सुखा डालना चाहिए, उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए. ऐसा सोचना जैन सिद्धान्त सम्मत तपश्चरण नहीं है, यह भयंकर जड़ क्रिया है। तथैव शरीर को अत्यन्त पुष्ट करना, उसी की साजसज्जा में रत रहने में जीवन की इति— समाप्ति मान बैठना भी निरी जड़ता है। इस बात को दीर्घ दृष्टि से सोचकर महाश्रमण महावीर ने साधु-साध्वियों के लिए निर्दोष सर्वसंपत्करी भिक्षा द्वारा आहार प्राप्त करके शरीर को पोषणपर्याप्त आहार देने का विधान किया है। भगवान् ने कहा कि "श्रमण निर्ग्रन्थों की भिक्षा नवकोटि-परिशुद्ध होनी चाहिए वह भोजन के लिए जीववध न करे, न करवाए और न करने वाले का अनुमोदन करे, न पकाए, न पकवाए और न पकाने वाले का अनुमोदन करे तथा न खरीदे, न खरीदवाए और न खरीदने वाले का अनुमोदन
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(क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. ३७५ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.) (क) सर्वसम्पत्करी चैका पौरुषघ्नी तथापरा। वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा विधोदिता।
—हारिभद्रीय अष्टक ५/१ (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ४२, ६१