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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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गवेषणा के लिए प्रथम क्रिया : गमन- भिक्षाचरी के लिए प्रथम क्रिया गमन है। प्रस्तुत आठ गाथाओं में भिक्षार्थ गमन का उद्देश्य, भावना तथा गमन के समय चित्तवृत्ति कैसी हो ? गमन में इन्द्रियों और मन को किस प्रकार रखे ? किस मार्ग से जाए किससे न जाए ? जीवों की यतना और रक्षा कैसे करे, कैसी परिस्थिति में भिक्षाचरी न करे ? आदि सभी पहलुओं भिक्षाचर्यार्थ गमन की विधि बताई है।
गोचरा: गोचर शब्द का अर्थ है-गाय की तरह चरना — भिक्षाचर्या करना। गाय शब्दादि विषयों में आसक्त न होती हुई तथा अच्छी-बुरी घास का भेद न करती हुई एक छोर से दूसरे छोर तक अपनी तृप्ति होने तक चरती चली जाती है, उसी प्रकार साधु-साध्वी का भी शब्दादि विषयों में आसक्त न होकर तथा उच्च-नीच - मध्यम कुल का भेदभाव न करते हुए तथा प्रिय-अप्रिय आहार में राग-द्वेष न करते हुए सामुदानिकरूप से भिक्षाटन करना गोचर कहलाता है । गोचर के आगे जो 'अग्र' शब्द का प्रयोग किया गया है, वह प्रधान या 'आगे बढ़ा हुआ' अर्थ का द्योतक है। गाय के चरने में शुद्धाशुद्ध का विवेक नहीं होता, जबकि साधु-साध्वी गवेषणा करके सदोष आहार को छोड़कर निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं। इसलिए उनकी भिक्षाचर्या गोचर से आगे बढ़ी हुई होने के कारण तथा चर परिव्राजकादि के गोचर से श्रमणनिर्ग्रन्थ का गोचर कुछ विशिष्ट होता है, इसलिए इसे ' गोचराग्र' कहा गया है। "
अव्याक्षिप्त चित्त से : चार अर्थ (१) आर्त्तध्यान से रहित अन्तःकरण से, (२) पैर उठाने में उपयोगयुक्त होकर, (३) अव्यग्र-वित्त से, अथवा बछड़े और वणिक्पुत्रवधू के दृष्टान्तानुसार शब्दादि विषयों में चित्त को नियोजित या व्यग्र न करते हुए और (४) एषणासमिति से युक्त होकर। तात्पर्य यह है कि भिक्षार्थ गमन करते समय साधु की चित्तवृत्ति केवल आहारगवेषणा में एकाग्र हो, शब्दादि विषयों के प्रति उसका भी ध्यान न जाए। जिनदास महत्तर ने इस सम्बन्ध में गाय के बछड़े और वणिक् पुत्रवधू का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है—
एक वणिक् के यहां अत्यन्त सलौना गाय का छोटा-सा बछड़ा था। घर के सभी लोग उसे प्यार से पुचकारते और खिलाते-पिलाते थे। एक बार वणिक् के यहां प्रीतिभोज था । सभी लोग उसमें लगे हुए थे। बेचारा बछड़ा भूखाप्यास दोपहर तक खड़ा रहा। एकाएक पुत्रवधू ने उसकी रंभाने की आवाज सुनी तो गहनों कपड़ों से सुसज्जित अवस्था में ही वह घास- चारा एवं पानी लेकर बछड़े के पास पहुंची । बछड़ा अपना चारा खाने में एकाग्र हो गया । उसने पुत्रवधू के शृंगार और साजसज्जा की ओर ताका तक नहीं। इसी प्रकार साधु भी बछड़े की तरह केवल आहारपानी की गवेषणा की ओर ही ध्यान रखे।'
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(क) गोरिव चरणं गोचरः — उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम् । (ख) गोरिव चरणं गोयरो, जहा गावीओ सद्दादिसु विसएसु असज्जमाणीओ आहारमाहारेंति ।
- हारि. वृत्ति, पत्र १५३
— जिन. चूर्णि, पृ. १६७
(क) गौश्चरत्येवमविशेषेण साधुनाऽप्यटितव्यम्, न विभवमंगीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति, वणि वत्सक - दृष्टान्तेन वेति । — हारि. वृति, पत्र १८ (ख) गोयरं अग्गं, गोतरस्स वा अग्गं गतो, अग्गं पहाणं । कहं पहाणं ? एसणादि गुणजुतं, ण उ चरगादीण अपरिक्खित्तेसणाणं । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९९
— जिन. चूर्णि, पृ. १६८
(क) अव्वक्खित्तेण चेतसा नाम णो अट्टझाणोवगओ उक्खेवादिणुवउत्तो ।
(ख) अव्याक्षिप्तेन चेतसा — — वत्स - वणिग्जायादृष्टान्तातृ शब्दादिष्वगतेन चेतसा अन्तःकरणेन एषणोपयुक्तेन ।
— हारि. वृत्ति, पत्र १६३