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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा या जल, गड्ढे आदि को पार करने के लिए काष्ठ आदि से बांधा हुआ मार्ग या कच्चा पुल।
अपवादसूत्र- दूसरा कोई मार्ग न हो तो साधु इस प्रकार के विषम मार्ग से भी जा सकता है, यह अपवादसूत्र है। किन्तु ऐसे विषम मार्गों को पार करने में यतनापूर्वक गमन करने की सूचना है।१३ ___पृथ्वी, जल, वायु और तिर्यञ्च जीवों की विराधना से बचने का निर्देश- सचित्त रज से भरे हुए पैरों से कोयले, राख, तुष, गोबर आदि पर चलने से उन सचित्त पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना होगी। वर्षा, बरस रही हो और कोहरा पड़ रहा हो, उस समय चलने से अप्कायिक जीवों की विराधना होगी। प्रबल अन्धड़ या आंधी चल रही हो, उस समय चलने से वायुकायिक जीवों की विराधना के साथ-साथ उड़ती हुई सचित्त रज शरीर के टकराने से पृथ्वीकाय की तथा रास्ता न दीखने से अन्य जीवों की तथा अपनी बिराधना भी. हो सकती है। तिर्यक् संपातिम (तिरछे उड़ने वाले भ्रमर, कीट, पतंग आदि) जीव मार्ग में छा रहे हों तो उस समय चलने से उनकी विराधना सम्भव है। ब्रह्मचर्य व्रत रक्षार्थ : वेश्यालयादि के निकट से गमन-निषेध
९१. न चरेज वेससामंते बंभचेरवसाणुए । ___ बंभयारिस्स दंतस्स होजा तत्थ विसोत्तिया ॥ ९॥ ९२. अणाययणे चरंतस्स संसग्गीए अभिक्खणं ।
- होज वयाणं पीला, सामण्णम्मि अ संसओ ॥१०॥ ९३. तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्वणं ।
वजए वेससामंतं मुणी एगंतमस्सिए ॥ ११॥ [९१] ब्रह्मचर्य का वशवर्ती श्रमण वेश्याबाड़े (वेश्याओं के मोहल्ले) के निकट (होकर) न जाए, क्योंकि दमितेन्द्रिय और ब्रह्मचारी साधक के चित्त में भी विस्रोतसिका (असमाधि) उत्पन्न हो सकती है ॥ ९॥
[९२] (ऐसे) कुस्थान में बार-बार जाने वाले मुनि के (काम-विकारमय वातावरण का) संसर्ग होने से व्रतों की पीड़ा (क्षति) और साधुता में सन्देह हो सकता है ॥ १० ॥ _ [९३] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर एकान्त (मोक्षमार्ग) के आश्रय में रहने वाला मुनि वेश्याबाड़े १३. (क) संकमिजंति जेण संकमो, सो पाणियस्स वा गड्डाए वा भण्णइ ।
—जिन. चूर्णि, पृ. १६९ (ख) संक्रमणे जलगर्तापरिहाराय पाषाणकाष्ठरचितेन।
-हारि. वृत्ति, पत्र १६४ (ग) जम्हा एते दोसा तम्हा विजमाणे गमणपहे ण सपच्चवाएण पहेण संजएण सुसमाहिएणं गंतव्वं ।
-जिन. चूर्णि, पृ. १६९ (घ) 'जति अण्णो मग्गो णत्थि ता तेणवि य पहेण गच्छेज्जा, जहा आय-संजमविराहणा ण भवई।'
-जिन. चूर्णि, पृ. १६९ १४. (क) सचित्तपृथ्वीरजोगुण्डिताभ्यां पादाभ्याम्।
—हारि. वृत्ति, पत्र १६४ __ (ख) न चरेद् वर्षे-वर्षति, भिक्षार्थ प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत्।
-हारि. वृत्ति, पत्र १६४ (ग) अगस्त्यचूर्णि, पृ. १०१ (घ) जिनदास चूर्णि, पृ. १७०