________________
१३६
दशवकालिकसूत्र का अर्थ है—प्राप्त भोग। अगस्त्यचूर्णि के अनुसार दोनों एकार्थक हैं।
निगामसाइस्स : निकामशायी : तीन अर्थ– (१) जिनदास के अनुसार प्रकामशायी—अतिशय सोनेवाला, (२) हरिभद्र के अनुसार—शयनबेला का अतिक्रमण करके सोनेवाला अथवा अत्यन्त निद्राशील। (३) अगस्त्यसिंह के अनुसार—कोमल संस्तारक (बिस्तर) बिछाकर सोनेवाला।९३२
उच्छोलणापहोइस्स- (१) प्रचुर जल से बार-बार अयतनापूर्वक हाथ-पैर आदि धोनेवाला, (२) प्रभूत जल से भाजनादि को धोनेवाला।१३३ ।।
सुगतिसुलभता के योग्य पांच गुण- (१) तपोगुणप्रधान जिसमें तपस्या का मुख्य गुण हो । अर्थात्जो समय आने पर यथालाभसंतोष या अप्राप्ति में भी संतोष करके तपश्चरण के लिए शान्तिपूर्वक उद्यत रहता हो। (२) ऋजुमतिः–जिसकी मति सरल हो, जो माया-कपटी न हो, निश्छल हो या जिसकी बुद्धि ऋजु– मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो। (३) क्षान्तिपरायण–क्षान्ति के दो अर्थ होते हैं क्षमा और सहिष्णुता तितिक्षा। ये दोनों गुण जिसमें होंगे, उसका कषाय मन्द होगा, सहनशक्ति विकसित होने के कारण वह रत्नत्रय की साधना उत्साहपूर्वक करेगा। (४) संयमरत–१७ प्रकार के संयम में लीन और (५) परीषहविजयी-धर्मपालन के लिए मोक्षमार्ग से च्युत न होकर समभावपूर्वक निर्जरा के हेतु से कष्ट सहन करना परीषह है। इसके क्षुधा, पिपासा आदि २२ प्रकार हैं।९३४
सुगति—दो अर्थों में— सुगति शब्द यहां दोनों अर्थों में प्रयुक्त है—(१) सिद्धिगति (मोक्ष) अथवा (२) मनुष्य-देवगति ।१३५
पिछली अवस्था में भी प्रव्रजित को सुगति- यदि कोई व्यक्ति वृद्धावस्था के कारण यह कहे कि में अब भागवती दीक्षा के योग्य नहीं रहा, उसके प्रति शास्त्रकार का कथन है कि जिन्हें तप, संयम, क्षान्ति और ब्रह्मचर्य आदि से प्रेम है वे वृद्धावस्था में चारित्रधर्म अंगीकार करने पर भी शीघ्र ही देवलोक (सुगति) प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि मोक्षप्राप्ति का साक्षात्कारण चारित्र है, तथपि पिछली अवस्था में शक्तिक्षीणता के कारण कदाचित् शरीर से चारित्र पालन में कुछ मन्दता हो, परन्तु मन में लगन, उत्साह और तीव्रता हो तो मोक्षप्राप्ति नहीं तो कम से कम स्वर्गप्राप्ति तो हो ही जाएगी, यह इस गाथा का आशय प्रतीत होता है।९३६
१३२. (क) निगामं नाम पगाम....सुयतीति निगामसायी ।
-जिनदास चूर्णि, पृ. १६४ (ख) सूत्रार्थवेलामुल्लंध्य शायिनः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १६० (ग) सपच्छण्णे मउए सइतं सीलमस्स निकामसाती ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९६ १३३. (क) उच्छोलणापहावी णाम जो पभूओदगेण हत्थपायादी अभिक्खणं पक्खालइ। अहवा भायणाणि पभूतेण पाणिएण पक्खालयमाणो उच्छोलणापहोवी ।
-जिनदास चूर्णि, पृ. १६४ १३४. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १३८ ' (ख) उज्जुया मती उज्जुमती अमाती ।
--अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९७ (ग) ऋजुमतेः-मार्गप्रवृत्तबुद्धेः । ..
—हारि. टीका, पृ.१६० (घ) परीसहा दिगिंछादि बावीसं ते अहियासंतस्स ।
—जिनदास चूर्णि, पृ. १६४ १३५. सुगति मोक्ष। ज्ञान और क्रिया द्वारा ही सुगति—मोक्षगति। -दशवै. (आचार्य आत्मा.), पृ. १३७-१३८ १३६. दशवैकालिकसूत्रम् (आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. १३९