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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
१२७ द्वारा प्रयुक्त जाणइ कल्लाणं, जाणइ पावगं', इन पदों को देखते हुए वृत्तिकार और चूर्णिकार ने यही अध्याहार किया है कि (१) सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ को सुनकर, (२) अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र को सुन कर, (३) या जीव, अजीव आदि तत्त्वों (पदार्थों) को सुन कर, (४) मोक्ष के साधन, तत्त्वों के स्वरूप और कर्मविपाक के विषय में
सुन कर।१२
श्रुति (श्रवण) का महत्त्व- वर्तमान युग में जैसे प्रायः पढ़ कर श्रेय-अश्रेय का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, वैसा प्राचीन काल में नहीं था, आगम रचनाकाल से लेकर वीरनिर्वाण की दसवीं शती से पूर्व तक जैनागम प्रायः कण्ठस्थ थे। आगमों का अध्ययन, वाचन, पुनरावर्तन आदि आचार्य के मुख से सुनकर होता था। यही कारण है कि उत्तराध्ययन सूत्र में मनुष्यत्वप्राप्ति के बाद दूसरा दुर्लभ परम अंग श्रुति-श्रवण बताया गया है। श्रद्धा और आचरण का स्थान उसके बाद है ।१३ साधु-साध्वी की पर्युपासना के स्थानांग सूत्र में १० फल बताए हैं, उनमें सर्वप्रथम फल 'श्रवण' है, उसके पश्चात् ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, तप, व्यवदान, अक्रिया और अन्त में निर्वाण बताया है। अर्थात् श्रवण का परम्परागत फल निर्वाण में परिसमाप्त होता है। उत्तराध्ययन में आगे मनुष्यशरीर के बाद धर्मश्रवण को तथा अहीनपंचेन्द्रियत्व-प्राप्ति के पश्चात् उत्तम धर्मश्रुति को दुर्लभ बताया गया है। इससे श्रवण या श्रुति का महत्त्व समझा जा सकता है।
कल्लाणं, पावगं : कल्याण- (१) कल्य—अर्थात् मोक्ष को जो प्राप्त कराए। उसे ज्ञान-दर्शन-चारित्र, संयम, धर्म आदि भी कहा जा सकता है।
पापक- (१) अकल्याण, (२) जिसके करने से पाप कर्मों का बन्ध हो, वह हैं असंयम।
उभयं : दो अर्थ- (१) कल्याण और पाप दोनों को, (२) उभय-संयमासंयम स्वरूप श्रावकोपयोगी, जिसमें कल्याण और पाप दोनों हों ।११५
११२. "सोच्चा नाम सुत्तत्थतदुभयाणि सोऊण, णाणदंसणचरित्ताणि वा सोऊण, जीवाजीवादी पयत्था वा सोऊण।"
—जिन. चूर्णि, पृ. १६१ ११३. (क) गणहरा तित्थगरातो, सेसो गुरुपरंपरेण सुणेऊणं ।
-अ. चू., पृ. ९३ (ख) उत्तरा० ३/१ ११४. (क) सवणे णाणे य विनाये पच्चक्खाये य संजमे । अणण्हते तवे चेव वोदाणे अकिरिय निव्वाणे ॥
—स्थानांग० ३/४१८ (ख) माणुसं विग्गहं लद्धं सुई धम्मस्स दुल्लहा ।
-उत्तरा० ३/८ (ग) अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई ह दुल्लहा
-उत्तरा० १०/१८ ११५. (क) कल्यो मोक्षस्तमणति-प्रापयतीति कल्याणं-दयाख्यं संयमस्वरूपम्
-हारि. टीका, पत्र १५८ (ख) कल्लं नाम नीरोगया सा य मोक्खो, तमणेइ जं तं कल्लाणं, ताणि य णाणाईणि । —जिन. चूर्णि, पृ. १६१ (ग) कल्लं आरोग्गं तं आणेइ कल्लाणं, संसारातो विमोक्खणं, सो य धम्मो । -जिन. चूर्णि, पृ. ९३ (घ) पावकं अकल्लाणं ।
-वही, पृ. ९३ (ङ) जेण य कएण कम्मं बज्झइ, तं पावं, सो य असंजमो ।
-जिन. चूर्णि, पृ. १६१ (च) 'उभयमपि' संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि ।
–हारि. वृत्ति, पत्र १५८ (छ) उभयं एतदेव कल्लाणं पावगं ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९३