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दशवैकालिकसूत्र
जीवाजीव के अविज्ञान-विज्ञान का परिणाम — जो व्यक्ति जीवों को शरीर - संहनन - संस्थान स्थिति, पर्याप्त विशेष आदि सहित नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, वह १७ प्रकार के संयम को सर्वपर्यायों सहित कैसे जान सकता है ? श्रेय और पाप को जानने वाला पाप का परित्याग करके श्रेय संयम को अपना लेता है, असंयम का परिहार करके मद्यमांसादि अजीव का भी परिहार करता है, इस प्रकार वह जीवाजीव- संयम का पालन कर सकता है ।११६ तात्पर्य यह है कि जीव और अजीव की परिज्ञा वाला व्यक्ति जीव और अजीव सम्बन्धी संयम को जानता है। जीवों का वध न करना चाहिए, इस प्रकार का ज्ञान होने से वह जीव-संयम करता है । मद्य, मांस, हिरण्यादि अजीव द्रव्यों का ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि ये संयमविघातक हैं। इस प्रकार अजीव-संयम भी कर सकता है। निष्कर्ष यह है कि जो जीव- अजीव को नहीं जानता, वह उनके प्रति संयम को भी नहीं जानता, अतः उनके प्रति वह संयम भी नहीं कर सकता ।
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जीवाजीव-विज्ञान : गति, पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष के ज्ञान से सम्बद्ध— प्रस्तुत दो गाथाओं (३७३८वीं) में जीवाजीव विज्ञान का गति आदि के ज्ञान से सीधा सम्बन्ध बताया गया है। जब मनुष्य को जीव, अजीव का विवेक - ज्ञान हो जाता है, तब वह विचार करता है कि सबकी आत्मा निश्चय दृष्टि से एकसी होने पर भी ये नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव आदि विभिन्न पर्यायें अथवा जीवों में अन्य विभिन्नताएं क्यों हैं ? एक नारक या तिर्यञ्च क्यों बना ? दूसरा मनुष्या या देव क्यों बना ? तब उसका उत्तर शास्त्रों या ज्ञानी पुरुषों के द्वारा (श्रवण) से मिलता है कि 'कारण कि बिना कार्य नहीं होता।' विभिन कर्म ही विभिन्न गतियों में जन्म-मरण आदि के कारण हैं। शुभकर्मों
कारण सुगति और अशुभकर्मों के कारण दुर्गति मिलती है। इस प्रकार साधक गतियों एवं उनके अन्तर्भेदों को सहज ही जान लेता है। पुण्य और पाप कर्मों की विशेषता के कारण सब जीवों की आत्मा समान होते हुए भी विभिन्न गतियां, योनियां तथा सुख-दुःख, शरीरादि संयोग मिलते हैं। जीव और कर्म का जो परस्पर क्षीर- नीरवत् संयोग (बन्धन) है, वही चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण का कारण है । जो तप, संयम और रत्नत्रयसाधना के द्वारा इन बन्धनों (कर्मबन्ध) को काट देता है, वह कर्म, संसार एवं जन्म-मरणादि के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली गतियों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। यही मोक्ष है। ११७ इस प्रकार जीव- अजीव को जानने वाला साधक विविध गतियों
११६. (क) अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९४
(ख) जिनदास चूर्णि, पृ. १६१ - १६२
(ग) हारि. वृत्ति, पत्र १५८
(घ) जीवा जस्स परिन्नाया, वेरं तस्स न विज्जइ ।
नहु जीरे अयाणंतो वहं वेरं च जाणइ ॥
११७. (क) यदा यस्मिन्काले जीवानजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति विविधं जानाति, तदा तस्मिन्काले गतिं नरकगत्यादिरूपां बहुविधां स्वपरगतिभेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति । यथावस्थितजीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञाना-भावात् । — हारि. वृत्ति, पत्र १५९
(ख) तेसिमेव जीवाणं आउ-बल- विभव - सुखातिसूतितं पुण्णं च पावं च अट्ठविहकम्मणिगलबंधणमोक्खमवि । अ. चू., पृ. ९४ (ग) पुण्यं च पापं च बहुविधगतिनिबन्धनं तथा बन्धं - जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं, मोक्षं च तद्द्द्वियोगसुखलक्षणं जानाति । — हारि. वृत्ति, पत्र १५९