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दशवकालिकसूत्र
प्रकार के मुण्ड बतलाए हैं—(१) क्रोधमुण्ड, (२) मानमुण्ड, (३) मायामुण्ड, (४) लोभमुण्ड, (५) शिरोमुण्ड, (६) श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड, (७) चक्षुरिन्द्रियमुण्ड, (८) घ्राणेन्द्रियमुण्ड, (९) रसनेन्द्रियमुण्ड और (१०) स्पर्शनेन्द्रियमुण्ड। वास्तव में जब तक बाह्याभ्यन्तरसंयोग बना रहता है, तब तक मोक्षपद की साक्षात्साधिका साधुवृत्ति ग्रहण नहीं कर पाता। परन्तु ज्यों ही मनुष्य समस्त भोगों से, भोगाकांक्षा से सर्वथा विरक्त हो जाता है और बाह्याभ्यन्तर संयोगों का त्याग कर देता है, त्यों ही उसकी अभिलाषा गृहस्थवास में रहने की या गृहस्थाश्रम का दायित्व वहन करने की नहीं रहती। वह सब से मुख मोड कर द्रव्य-भाव से मण्डित होकर अनगारधर्म में प्रव्रजित हो जाता है। जिसके अगार अर्थात् अपने स्वामित्व का कोई गृह नहीं होता, वह अनगार कहलाता है। अनगारिता अर्थात्-अनगारवृत्तिं या अनगारधर्म अथवा गृहरहित अवस्था साधुता ।१२३
उत्कृष्ट संवररूप अनुत्तर धर्म क्या और कौन-सा?— प्राणातिपात आदि आस्रव-(कर्मों के आगमन-) द्वार का भलीभांति रुक जाना संवरधर्म है। यों तो संवर गृहस्थावस्था में भी किया जा सकता है, किन्तु वहां एकदेशरूप (अणुव्रतरूप) संवर ही धारण किया जा सकता है, जबकि यहां उत्कृष्ट संवर धारण करने की बात कही है वह सर्वविरतिरूप (महाव्रतरूप) संवर की अपेक्षा से कही है। इस दृष्टि से संवर के दो प्रकार होते हैं—देशसंवर और सर्वसंवर। देशसंवर में आस्रवों का आंशिक निरोध होता है, जब कि सर्वसंवर में उनका पूर्ण निरोध होता है। यहां देशसंवर की अपेक्षा सर्वसंवर को उत्कृष्ट कहा है। सर्वसंवर अंगीकार करने का अर्थ हैसकल चारित्रधर्म को अंगीकार करना। महाव्रतरूप पूर्ण चारित्र धर्म से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, इसीलिए इसे अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) धर्म कहा है। भावार्थ यह है कि समस्त विषयभोग, बाह्याभ्यन्तरग्रन्थि और गृहवास को छोड़ कर जब साधक द्रव्य-भाव से मुण्डित होकर अनगारधर्म को अंगीकार करता है, तब सहज ही महाव्रतरूप उत्कृष्ट सर्वश्रेष्ठ संवरधर्म का स्पर्श आसेवन (पालन) करता है। ऐसी स्थिति में उसके समस्त पापास्रवों का पूर्ण निरोध (संवर) हो जाता है। चूर्णिकारों के मतानुसार उत्कृष्ट संवर को जो अनुत्तर धर्म कहा है, वह परमतों की अपेक्षा से कहा है।१२४
अबोधिकलुषकृत कर्मरज-ध्वंस का कारण और उसका परिणाम- आत्मा अपने आप में शुद्ध है, किन्तु कर्मों के आवरण के कारण वह कलुषित-अशुद्ध हो रही है। जब साधक उत्कृष्ट संवररूप अनुत्तर धर्म का पालन करता है तो एक ओर से वह नवीन कर्मों (आस्रवों) का सर्वथा निरोध कर देता है, दूसरी ओर से१२५ पूर्व में १२३. (क) मुंडे इंदिय-विसय-केसावणयणेण मुंडो |-अगस्त्यचूर्णि, पृ. ९५ (ख) स्थानांग स्थान १०/९९
(ग) अगारं-घरं तं जस्स नत्थि सो अणगारो । तस्स भावो अणगारिता तं पवज्जति । –अ. चू., पृ. ९५ १२४. (क) संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भण्णइ । देससंवराओ सव्वसंवरो उक्किट्ठो । तेण सव्वसंवरेण
संपुण्णं चरित्तधम्मं फासेइ । अणुत्तरं नाम न ताओ धम्माओ अण्णो उत्तरोत्तरो अत्थि। ...उक्किट्ठग्गहणं देसविरइपडिसेहणत्थं कयं । अणुत्तरगहणं एसेव एक्को जिणप्पणीओ धम्मो अणुत्तरो, ण परवादिमताणित्ति ।
-जिनदास चूर्णि, पृ. १६३ (ख) उत्कृष्टसंवरं धर्म सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपं चारित्रधर्ममित्यर्थः । स्पृशत्यानुत्तरं सम्यगासेवत इत्यर्थः।
–हारि. वृत्ति, पत्र १५९ १२५. (क) धुणति-विद्धंसयति, कम्ममेव रतो कम्मरतो। ...अबोहि-अण्णाणं, अबोहिकलुसेण कडं, अबोहिणा, वा कलुसं कतं ।
-अग. चूर्णि, पृ. ९५