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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
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रहते हैं और अकरणीय कृत्य नहीं करते । पाप एवं आत्मपतन से बचते हैं। वे परम (शुद्ध) आत्मा के सान्निध्य में रहते हैं । इसीलिए शास्त्रकार ने 'दिया वा राओ वा' इत्यादि पंक्तियां अंकित की हैं, जो प्रत्येक परिस्थिति, समय एवं स्थान- विशेष की सूचक हैं।
एगओ वा : आशय 'एगओ' का शब्दशः अर्थ होता है, एकाकी या अकेला, परन्तु इसका वास्तविक अर्थ 'एकान्त में ' है। कई साधु एक साथ हों, किन्तु वहां कोई गृहस्थ आदि उपस्थित न हों तो किसी अपेक्षा से उन साधुओं के लिए इसे भी 'एकान्त' कहा जा सकता है । ८१
पृथ्वीकाय के प्रकार एवं उपयुक्त अर्थ — प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकाय के कई प्रकार बताए हैं। यदि वे सूर्यताप, अग्नि, हवा और पानी या मनुष्य के अंगोपांगों से बार-बार क्षुण्ण होकर शस्त्रपरिणत न हुए हों तो सचित्त होते हैं। इनके उपयुक्त अर्थ क्रमश: इस प्रकार हैं—– पुढविं— पृथ्वी, पाषाण, ढेला आदि से रहित पृथ्वी, भित्ति— (१.) जिनदास महत्तर और टीकाकार के अनुसार 'नदी' (२) अगस्त्य - चूर्णि के अनुसार नदी - पर्वतादि की दरार, रेखा या राजि । शिला– विशाल पाषाण या विच्छिन्न विशाल पत्थर । लेलु – ढेला (मिट्टी का छोटा-सा पिण्ड या पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा)। ससरक्खं : दो रूप : दो अर्थ- (१) ससरक्ष— राख के समान सूक्ष्म पृथिवी की रज से युक्त, (२) सरजस्क —— गमनागमन से अक्षुण्ण अरण्य रजकण जो प्रायः सजीव होते हैं, इसलिए सरजस्क पृथ्वी से संस्पृष्ट शरीर या वस्त्र को सचित्तसंस्पृष्ट माना है । ८२
पृथ्वी कायविराधना के साधन — काष्ठ, किलिंच आदि को शास्त्रकार ने पृथ्वीकायविराधना के साधन माने हैं । किलिंचेण : कलिंजेण : दो अर्थ — किलिंच — बांस की खपच्ची को कहते हैं, कलिंज कहते हैं छोटे-से लकड़ी के टुकड़े को । सलागहत्थेण : दो अर्थ – (१) लकड़ी, तांबा या लोहे का अनगढ़ या गढ़ा हुआ टुकड़ा शलाका, उनका हस्त अर्थात् समूह । (२) सलाई की नोक । ३
८१.
(क) 'सव्वकालितो नियमो त्ति कालविसेसणं—दिता वा रातो वा सव्वदा ।'
(ख) चेट्ठा अवत्थंतरविसेसणत्थमिदं सुत्ते वा जहाभणितनिद्दामोक्खत्थसुत्ते जागरमाणे वा सेसं कालं ।
(ग)
कारणिएण वा एगेण ।'
(घ) दशवै. ( मुनि नथमलजी), पृ. १४८
८२. (क) 'पुढविग्गहणेणं पासाणलेट्टु माईहिं रहियाए पुढवीए गहणं ।'
(ख) 'भित्ती नाम नदी भण्णइ ।'
(ग) 'भित्तिः नदीतटी ।'
— अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८७ —जिनदास चूर्णि, पृ. १५४
(घ) 'भित्ती नदी - पव्वतादितडी, ततो वा जं अबद्दलितं ।'
(ङ) 'सिला नाम विच्छिण्णो जो पहाणो, स सिला ।'
— जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ -- हारि. वृत्ति, पत्र १५२ - अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८७ –जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ - हारि. वृत्ति, पत्र १५२
(च) 'विशाल: पाषाणः ।'
(छ) 'लेलू मट्टियापिंडो ।' अगस्त्य चूर्णि पृ. ८७ (ज) “लेलु लेट्ठओ ।” – जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ (झ) 'सरक्खो = सुसण्हो छारसरिसा पुढविरतो, सहसरक्खेण ससरक्खो ।' — अगस्त्य चूर्णि पृ. १०१ (ञ) 'सह रजसा - अरण्यपांशुलक्षणेन वर्तत इति सरजस्क: । ' — हारि. वृत्ति, पत्र १५२
८३. (क) 'किंलिंचो - वंसकप्परो ।'
— निशीथचूर्णि, ४/१०७