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दशवैकालिकसूत्र पकड़ने के लिए छेद हो और जो दो पुट वाला हो। पत्र, शाखा, शाखाभंग आदि प्रसिद्ध हैं। पेहुण मोर का पंख, मोरपिच्छ या वैसा ही दूसरा पिच्छ। पेहुण-हस्त—जिसके हत्था बंधा हुआ हो ऐसा मोर की पांखों का गुच्छा या मोरपिच्छी अथवा गृद्धपिच्छी। चेलकण्ण वस्त्र का पल्ला।
वनस्पतिकायिक जीवों के प्रकार, विराधना और अर्थ—बीएस-बीजों पर, बीयपइटेसु उपर्युक्त बीज वाली वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों पर। रूढेसु : दो अर्थ (१) बंकुर न निकला हो, ऐसे स्फटित (भूमि फोड़ कर बाहर निकले हुए) बीजों पर, अथवा (२) बीज फूट कर जो अंकुरित हुए हों, उन पर। रूढपड्ढेसुस्फुटित बीजों पर रखे हुए पदार्थों पर।जाएसु : विशेषार्थ (१) बद्धमूल वनस्पति, (२) स्तम्बीभूत वनस्पति, जो अंकुरित हो गई हो, जिसकी पत्तियां भूमि पर फैल गई हों। (३) अल्पवृद्धिंगत घास। जायपइटेसुजो उगकर पत्रादि युक्त हो गई हों, ऐसी जातवनस्पति पर रखे पदार्थों पर। छिन्नेसु हवा के जोर से टूटे हुए या कुल्हाड़ी आदि से काट कर वृक्षादि से अलग किये हुए शस्त्र-परिणत शाखादि अंगों पर। छिन्नपइद्वेसु कटी हुई आर्द्र वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों पर। हरिएसु–हरी दूब या अन्य हरियाली पर। हरियपइवेसु हरित पर रखी हुई वस्तुओं पर। सचित्तेसु-सजीव अण्डे आदि से संश्रित वनस्पति पर, सचित्तकोल-पडिनिस्सिएसु–सचित्त कोल अर्थात् घुण-काष्ठकीट अथवा दीमक के द्वारा आश्रय लिए हुए काष्ठ या वनस्पति विशेष पर।१०।।
त्रसकायिक जीव विराधना से विरति में विकलेन्द्रिय का ही उल्लेख क्यों ? - प्रश्न होता है कि त्रसकाय के अन्तर्गत तो द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं, फिर यहां द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति के ही एक-एक दो-दो जीवों का उल्लेख त्रसकाय-विराधना से विरति के प्रसंग में क्यों किया गया? इसका समाधान यह है कि वैसे तो समस्त त्रसकायिक जीवों की किसी भी प्रकार की विराधना हिंसा है और हिंसा का त्रिकरण-त्रियोग से त्याग प्रथम महाव्रत में आ ही जाता है, इसलिए यहां उल्लेख न किया जाता तो भी चलता, किन्तु यहां उन जीवों की विशेषरूप से रक्षा एवं यतना बताने के लिए यह पाठ दिया गया है। इसमें चारों प्रकार के पंचेन्द्रिय जीवों की विराधना से विरति का उल्लेख इसलिए नहीं किया गया है कि ये जीव तो आंखों से दिखाई देते हैं, इनकी विराधना साधु-साध्वी अपनी आहार-विहारादि चर्या के समय कर ही नहीं सकते। किन्तु द्वीन्द्रियादि त्रसजीवों का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक था कि साधु-साध्वी के शरीर के अंगोपांग, उपकरण आदि के लेने, रखने, बैठने, चलनेफिरने, सोने, भोजन करने आदि क्रियाओं में असावधानी से, अविवेक से या प्रतिलेखन-प्रमार्जन न करने से इनकी ८९. (क) 'सितं चामरम् ।'
-हारि. वृत्ति, पत्र १५४ (ख) विधुवनं-व्यजनम् ।
-वही, पत्र १५४ (ग) 'तालवृन्त—तदेव मध्यग्रहणच्छिद्रम्' (घ) 'पत्र-पद्भिजीपत्रादि ।' (ङ) शाखा-वृक्षडालं, शाखाभंगं तदेकदेशः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १५४ (च) 'पेहुणं मोरपिच्छगं वा, अण्णं किंचि वा तारिसं पिच्छं ।'
-जिनदासचूर्णि, पृ. १५६ (छ) पिहुणाहत्थओ मोरिगकुच्चओ, गिद्धपिच्छाणि वा एगओ बद्धाणि । -जिन. चूर्णि, पृ. १५६ (ज) पेहुणहस्तः-तत्समूहः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १५४ (झ) चेलकर्णः-तदेकदेशः ।
-वही, पत्र १५४ ९०. अगस्त्यचूर्णि, पृ. ९०