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अधिक या बार
चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
११५ ___ संभावित अप्कायिक विराधना की क्रियाएं : अर्थ आमर्श थोड़ा या एक बार स्पर्श। संस्पर्श अधिक या बार-बार स्पर्श । आपीड़न थोड़ा या एक बार पीलना, दबाना, निचोड़ना या पीड़ा देना। प्रपीड़नधिक या बार-बार पीलना, दबाना, निचोडना या पीडा देना। आस्फोटन-थोड़ा या एक बार झटकना, फटकारना, प्रस्फोटन अधिक या बार-बार झटकना या फटकारना। आतापन—एक बार या थोड़ा-सा सुखाना या तपाना। प्रतापन अधिक बार या अधिक सुखाना या तपाना।६।
तेजस्काय के प्रकार एवं अर्थ अग्निलोहपिण्डानुगत स्पर्शग्राह्य लोहपिण्ड अथवा तेजस्। अंगार : दो अर्थ (१) ज्वाला रहित कोयले, (२) लकड़ी के जलते हुए धुंए से रहित टुकड़े। मुर्मुर–कंडे या छाणे की आग, चोकर या भूसी की अग्नि, राख आदि में रहे हुए विरल अग्निकण, भोभर अत्यल्प अग्निकण से युक्त गर्म राख। अर्चि : तीन अर्थ (१) दीपशिखा का अग्रभाग—लौ, (२) आकाशानुगत परिच्छिन्न (टूटती हुई) अग्निशिखा, अथवा (३) मूल अग्नि से टूटती हुई ज्वाला। ज्वाला—प्रदीप्त अग्नि से सम्बद्ध अग्निशिखा—आग की लपट। अलात : तीन अर्थ—(१) भट्ठे की अग्नि, (२) अधजली लकड़ी अथवा (३) मशाल (जलती हुई)। शुद्ध अग्नि-काष्ठादिरहित अग्नि। उल्का-आकाशीय अग्नि विद्युत आदि। तेजोलेश्या या पार्थिव मणि आदि का प्रकाश अचित्त है। शेष सूत्रोक्त अग्नियां सचित्त हैं जिनका उपयोग साधु-साध्वी के लिए वर्जित है।
__ अग्निकाय-विराधना की क्रियाएं : अर्थ उत्सेचन : उंजन –अग्नि प्रदीप्त करना, सुलगाना या सींचना। घट्टन सजातीय या अन्य पदार्थों से परस्पर घर्षण करना या चालन करना। उज्ज्चालन-प्रज्ज्वालन—पंखे आदि से हवा देकर अग्नि को प्रज्वलित करना, उसकी अत्यन्त वृद्धि करना। निर्वाण : निर्वापन बुझाना, शान्त करना।८
वायुकायिक विराधना के साधन–सित श्वेत चामर। निशीथभाष्य में 'सिएण' के बदले 'सुप्पे' (शूर्प सूपड़ा) का प्रयोग मिलता है। विधुवन–व्यजन या पंखा। तालवृन्त–ताड़पत्र का पंखा, जिसके बीच में
८६. (क) आमुसणं नाम ईषत्-स्पर्शनं अहवा एकवारं फरिसणं आमुसणं । पुणो पुणो संफुसणं । —जि. चू., पृ. १५५ (ख) सकृदीषद् वा पीडनमापीडनमतोऽन्यत् प्रपीडनम् ।
—हारि. टीका, पृ. १५३ (ग) अच्चत्थं पीलणं पवीलणं ।
—जिन. चूर्णि, पृ. १५५ (घ) 'सकृदीषद् वा स्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनम् ।'
-हारि. टीका, पर १५३ (ङ) 'सकृदीषद्वा तापनमातापनं, विपरीतं प्रतापनम् ।'
-वहीं, पत्र १५३ (च) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ९५ ८७. (क) जिनदासचूर्णि, पृ. १५६ (ख) अगस्त्यचूर्णि, पृ. ८९ (ग) हारि. वृत्ति, पत्र १५४
(घ) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ९९ (क) उञ्जनमुत्सेचनम् । (ख) 'घट्टनं-सजातीयादिना चालनम् ।'
-हारि. वृत्ति, पत्र १५४ (ग) घट्टणं परोप्परं उम्मुगाणि घट्टयति, वा अण्णेण तारिसेण दव्वजाएण घट्टयति । –जिनदास चूर्णि, पृ. १५६ (घ) 'उज्जलणं वीयणमाईहिं जालाकरणं ।'
—वही, पृ. १५६ (ङ) उज्ज्वालनं-व्यजनादिभिर्वृद्ध्यापादनम् ।
—हारि. वृत्ति, पत्र १५४ (च) “विज्झवणं निव्वावणं ।'
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. ८९