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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
होता है ॥२४॥
[५६] अयतनापूर्वक खड़ा होने वाला साधु (या साध्वी) प्राणों और भूतों की हिंसा करता है, ( उससे ) पापकर्म का बन्ध होता है, जो उसके लिए कटु फल वाला होता है ॥ २५ ॥
[५७] अयतनापूर्वक बैठने वाला साधक (द्वीन्द्रियादि) त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, ( उससे उसके) पापकर्म का बन्ध होता है, जो उसके लिए कटु फल वाला होता है ॥ २६ ॥
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[५८] अयतना से सोने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, ( उससे) वह पापकर्म का बन्ध करता है, जो उसके लिए कटुक फल प्रदायक होता है ॥ २७ ॥
[५९] अयतना से भोजन करने वाला व्यक्ति त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा करता है, (जिससे) वह पापकर्म का बन्ध करता है, जो उसके लिए कटु फल देने वाला होता है ॥ २८ ॥
[६०] यतनारहित बोलने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। (उससे उसके) पापकर्म का बन्ध होता है, जो उसके लिए कटु फल वाला होता है ॥ २९ ॥
[६१ प्र.] (साधु या साध्वी) कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए और कैसे बोले ?, जिससे कि पापकर्म का बन्धन हो ? ॥ ३० ॥
[६२ उ.] (साधु या साध्वी ) यतनापूर्वक चले, यतनापूर्वक खड़ा हो, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोए, यतनापूर्वक खाए और बोले, (तो वह) पापकर्म का बन्धन नहीं करता ॥ ३१॥
[ ६३ ] जो सर्वभूतात्मभूत (सर्वजीवों को आत्मतुल्य मानता) है, जो सब जीवों को सम्यग्दृष्टि से देखता है तथा जो आश्रव का निरोध कर चुका है और दान्त है, उसके पापकर्म का बन्ध नहीं होता ॥ ३२ ॥
विवेचन अयतना और यतना का परिणाम प्रस्तुत ९ सूत्रों (५५ से ६२ तक) में से प्रारम्भ के ६ सूत्रों में अतना से गमन करने, खड़ा होने, सोने, खाने और बोलने का परिणाम पाप (अशुभ) कर्मों का बन्ध तथा कटुफल प्रदायक बताया गया है। तत्पश्चात् ७वीं गाथा में पापकर्मबन्ध न होने के उपाय की जिज्ञासा शिष्य द्वारा प्रकट की गई है, जिसका समाधान ८वीं गाथा में बहुत ही सुन्दर शब्दों में प्रस्तुत किया गया है और उसी के सन्दर्भ में ९वीं गाथा में पापकर्म बन्ध से रहित होने की चार अर्हताओं का निरूपण किया गया है।
अयतना - यतना क्या है ? – अयतना और यतना ये दोनों शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द हैं । अयतना का अर्थ है उपयोगशून्यता, असावधानी, अविवेक, अजागृति अथवा प्रमाद ( गफलत ) । इसके विपरीत यतना का अर्थ उपयुक्तता, सावधानी, विवेक, जागृति अथवा अप्रमाद है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो प्रत्येक योग्य क्रिया के लिए जिस समिति अथवा शास्त्रीय नियमों तथा आज्ञाओं का साधु-साध्वी के लिए विधान है, उनका उल्लंघन करना तद्विषयक अयतना है और इसके विपरीत उनके अनुसार चर्या करना यतना है । ९५
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(क) दशवै. ( गुजराती अनुवाद संतबालजी)
(ख) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १११
(ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १५९