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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
१११ चलाए, न खड़ा करे, न बिठाए और न करवट बदलाए (या सुलाए), न उन पर चलने वाले, खड़े होने वाले, बैठने वाले अथवा करवट बदलने (या सोने) वाले अन्य किसी का भी अनुमोदन करे। (भंते! मैं इस प्रकार वनस्पतिंकाय की विराधना से विरत होने की प्रतिज्ञा) यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से (करता हूं।) (अर्थात्-) मन से, वचन से और काया से वनस्पतिकाय की विराधना नहीं करूंगा, न (दूसरों से) कराऊंगा और न ही वनस्पतिकाय की विराधना करने वाले अन्य किसी का भी अनुमोदन करूंगा।
___ भंते! मैं उस (अतीत में हुई वनस्पतिकाय की विराधना) से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और उस आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं ॥ २२॥
[५४] जो संयत है, विरत है, जिसने पाप-कर्मों का निरोध और प्रत्याख्यान कर दिया है, वह भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में, अकेले (एकान्त) में हो या परिषद् में हो, सोते या जागते, कीट (कीड़े) को, पतंगे को, कुंथु को अथवा पिपीलका (चींटी) को हाथ पर, पैर पर, भुजा (बांह) पर, उरु (साथल या जंघा) पर, उदर (पेट) पर, सिर पर, वस्त्र पर, पात्र पर, रजोहरण पर, अथवा गुच्छक (पात्र पोंछने के वस्त्र) पर, उंडग (प्रस्रवणपात्रभोजन या स्थण्डिल) पर या दण्डक (डंडे या लाठी) पर, अथवा पीठ (पीढे या चौकी) पर, या फलक (पट्टे या तख्त) पर, अथवा शय्या पर, या संस्तारक (बिछौने–संथारिये) पर, अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी उपकरण पर चढ़ जाने के बाद यतना-पूर्वक (सावधानी से धीमे-धीमे) देख-देख (प्रतिलेखन) कर, (तथा) पोंछ-पोंछ (प्रमार्जन) कर एकान्त स्थान में ले जाकर रख दे (या एकान्त स्थान में पहुंचा दे) उनको एकत्रित करके घात (पीड़ा या कष्ट) न पहुंचाए ॥ २३॥
विवेचन षड्जीवनिकाय की विराधना की विरति का निर्देश और प्रतिज्ञा– प्रस्तुत ६ सूत्रों (४९ से ५४ तक) में पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीवों के मुख्य-मुख्य प्रकारों, तथा विभिन्न प्रकार एवं साधनों से उनकी विराधना होने की संभावना तथा त्रिकरण-त्रियोग से यावज्जीवन के लिए उनकी विराधना के त्याग का गुरु द्वारा निर्देश किया गया है। इस निर्देश से सहमत शिष्य द्वारा प्रत्येक जीवनिकाय की विराधना से विरत होने की प्रतिज्ञा का निरूपण है। दूसरे शब्दों में कहें तो चारित्रधर्म को अंगीकार (महाव्रत ग्रहण) करने के बाद षट्कायिक जीवों की रक्षा की विधि जान कर प्रतिज्ञाबद्ध होने का निरूपण है। व्रतारोपण के बाद साधु-साध्वी का व्यवहार षड्जीवनिकाय के प्रति कैसा रहना चाहिए ? इसका सांगोपांग वर्णन इनमें है।
भिक्षु और भिक्षुणी दोनों के लिए समान विशेषण— प्रस्तुत ६ सूत्रों के प्रारम्भ में जो चार विशेषण प्रयुक्त किये हैं, वे भिक्षु और भिक्षुणी दोनों के लिए हैं, भिक्षु उसे कहते हैं, जो भिक्षणशील या भिक्षाजीवी है, आहारादि प्रत्येक वस्तु याचना या भिक्षा करके लेता है। गेरुआ, भगवां या अन्य किसी प्रकार के रंग से रंगे हुए कपड़े पहनने वाले भी भिक्षा मांग कर जीवननिर्वाह करते हैं, इसलिए वे भी 'भिक्षु' कहलाने लगेंगे, इस आशय से शास्त्रकार ने निर्ग्रन्थ भिक्षु-भिक्षुणी की वास्तविक पहचान के लिए यहां संयत, विरत, प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा, ये विशेषण दिये हैं। संन्यासी या गेरुआ वस्त्र वाले साधु आदि स्वामी की आज्ञा के बिना भी जलाशय आदि से अपने हाथों से ७५. (क) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. १४७
(ख) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. २६५ (ग) दशवै. (आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. १८०