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दशवैकालिकसूत्र
भंते ! मैं उस (अतीत में किये हुए प्राणातिपात) से निवृत्त (विरत) होता हूं, (आत्मसाक्षी से उनकी) निन्दा करता हूं, (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूं और (प्राणातिपात से या पापकारी कर्म से युक्त) आत्मा का व्युत्सर्ग करता
भंते! मैं प्रथम महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित (उद्यत) हुआ हूं। जिसमें सर्वप्रकार के प्राणातिपात से विरत होना होता है ॥ ११॥
[४३] भंते! (प्रथम महाव्रत के अनन्तर) द्वितीय महाव्रत में मृषावाद से विरमण होता है। भंते! मैं सब (प्रकार के) मृषावाद का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूं। क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से, स्वयं असत्य (मृषा) न बोलना, दूसरों से असत्य नहीं बुलवाना और दूसरे असत्य बोलने वालों का अनुमोदन न करना, (इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं) यावजीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से करता हूं। (अर्थात्) मैं मन से, वचन से, काया से (मृषावाद) स्वयं नहीं करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा और न अन्य किसी करने वाले का अनुमोदन करूंगा।
भंते ! मैं उस (अतीत के मृषावाद) से निवृत्त होता हूं, (आत्मसाक्षी से उसकी) निन्दा करता हूं, (गुरुसाक्षी) से गर्दा करता हूं और (मृषावाद से युक्त) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं।
भंते ! मैं द्वितीय महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित हुआ हूं, (जिसमें) सर्व-मृषावाद से विरत होना होता है ॥१२॥
__ [४४] भंते! (मृषावादविरमण नामक द्वितीय महाव्रत के पश्चात्) तृतीय महाव्रत में अदत्तादान से विरति होती है। भंते! मैं सब (प्रकार के) अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं। जैसे कि गांव में, नगर में या अरण्य में, (कहीं भी) अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त (सजीव) हो या अचित्त (निर्जीव), (किसी भी) अदत्त वस्तु का स्वयं ग्रहण न करना, दूसरों से अदत्त वस्तु का ग्रहण न कराना और अदत्त वस्तु का ग्रहण करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन न करना, यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से, (इस प्रकार की प्रतिज्ञा करता हूं।) (अर्थात्) मैं मन से, वचन से, काया से स्वयं (अदत्त वस्तु को ग्रहण) नहीं करूंगा, न ही दूसरों से कराऊंगा और अदत्तवस्त ग्रहण करने वाले अन्य किसी का अनमोदन भी नहीं करूंगा। ___भंते! मैं उस (अतीत के अदत्तादान) से निवृत्त होता हूं। (आत्मसाक्षी से उसकी) निन्दा करता हूं, (गुरुसाक्षी) से गर्दा करता हूं और (अदत्तादान से युक्त) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं।
भंते ! मैं तृतीय महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित हुआ हूं, (जिसमें) सर्व-अदत्तादान से विरत होना होता है ॥ १३॥
[४५] इसके (अदत्तादान-विरमण के) पश्चात् चतुर्थ महाव्रत में मैथुन से निवृत्त होना होता है। मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूं। जैसे कि देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी अथवा तिर्यञ्च-सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन न करना, दूसरों से मैथुन सेवन न कराना और अन्य मैथुन सेवन करने वालों का अनुमोदन न करना, (मैं इस प्रकार की प्रतिज्ञा) यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से (करता हूं।) (अर्थात्) मैं मन से, वचन से, काया से (स्वयं मैथुन-सेवन) न करूंगा, (दूसरों से मैथुन-सेवन) नहीं कराऊंगा और न ही (मैथुन-सेवन करने वाले अन्य किसी का) अनुमोदन करूंगा।
भंते! मैं इससे (अतीत के मैथुन-सेवन से) निवृत्त होता हूं। (आत्मसाक्षी से उसकी) निन्दा करता हूं,