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दशवैकालिकसूत्र
प्राणातिपात किन साधनों से और किस-किस प्रकार से ? – सर्वप्राणातिपात के सन्दर्भ में ही यहां बताया गया है कि प्राणातिपात मन, वचन और शरीर, इन तीन साधनों (योगों) से, तथा कृत, कारित और अनुमोदन से होता है। इन सब प्रकारों से होने वाले प्राणातिपातों से नवदीक्षित साधु-साध्वी विरत होने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं।° इस विषय की व्याख्या पूर्वपृष्ठों में की जा चुकी है।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्राणातिपात का त्याग —— इसके अतिरिक्त सर्वप्राणातिपातविरमण में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्राणातिपात का विचार करके उनसे विरत होना आवश्यक है । द्रव्यदृष्टि से प्राणातिपात का विषय षड्जीवनिकाय है, अर्थात् — हिंसा छह प्रकार ( निकाय) के सूक्ष्म एवं बादर जीवों की होती है। क्षेत्रदृष्टि से प्राणातिपात का विषय समग्र लोक है, क्योंकि समग्र लोक में ही जीव हैं, अतः प्राणातिपात लोक में ही सम्भव है। काल की दृष्टि से प्राणातिपात का विषय सर्वकाल है, क्योंकि दिन हो या रात, सब समय सूक्ष्म बादर जीवों की हिंसा हो सकती है तथा भावों की दृष्टि से हिंसा का हेतु राग और द्वेष है। जैसे—मांसादि या शरीर आदि के लिए रागवश तथा शत्रु आदि को द्वेषवश मारा जाता है।
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इसके अतिरिक्त द्रव्यहिंसा - भावहिंसा आदि अनेक विकल्प हिंसा के हैं । निष्कर्ष यह है कि शिष्य गुरु के समक्ष प्रतिज्ञाबद्ध होता है कि मैं (उपर्युक्त) सभी प्रकार से प्राणातिपात से निवृत्त होता हूं । १
मृषावाद: प्रकार, कारण और विरमण मृषावाद का विशेष रूप से अर्थ होता है—मन से असत्य सोचना, वचन से असत्य बोलना और काया से असत्य आचरण करना, असत्य लिखना, असत्य चेष्टा करना । इसी दृष्टि से मृषावाद (असत्य) चार प्रकार का होता है-- (१) सद्भाव - प्रतिषेध, (२) असद्भाव - उद्भावन, (३) अर्थान्तर और (४) गर्हा ।
( १ ) सद्भावप्रतिषेध — जो विद्यमान है, उसका निषेध करना । जैसे आत्मा नहीं है, पुण्य या पाप नहीं है, बन्ध - मोक्ष नहीं है, इत्यादि ।
( २ ) असद्भाव - उद्भावन — अविद्यमान (असद्भूत) वस्तु का अस्तित्व कहना अथवा जो नहीं हैं या जैसा नहीं है, उसके विषय में कहना कि यह वैसा है। जैसे आत्मा के सर्वगतं सर्वव्यापक न कहना अथवा आत्मा को श्यामाकतन्दुल के बराबर कहना, इत्यादि ।
पर भी उसे वैसा
(३) अर्थान्तर - किसी वस्तु को अन्य रूप में बताना अथवा पदार्थ का स्वरूप विपरीत बतांना । जैसे गाय को घोड़ा और घोड़े को हाथी कहना ।
( ४ ) गर्हा— जिसके बोलने से दूसरों के प्रति घृणा एवं द्वेष उत्पन्न होने से उनका हृदय दुःखित होता है। जैसे काने को काना, नपुंसक को हीजड़ा, चोर को 'चोर !' इत्यादि कहना । ६२
६०. तिविहं ति—मणो- वयण- कायातो, तिविहेणं ति—करण - कारावण- अणुमोयणाणि ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७८
६१.
(क) इयाणिं एस एव पाणाइवाओ चउव्विहो सवित्थरो भण्णइ, तं दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ...... दोसेण वितियं मारेइ । —जिनदास चूर्णि, पृ. १४७
(ख) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ६४
६२. तत्थ मुसावाओ चउव्विहो, तं — सब्भावपडिसेहो, असब्भूयुब्भावणं, अत्यंतरं, गरहा । तत्थ सब्भावपडिसेहो णाम जहा —— णत्थि जीवो, णत्थि पुण्णं पावं, णत्थि बंधो, णत्थि मोक्खो एवमादी । असब्भूयुब्भावणं नाम जहा अस्थि जीवो सव्ववावी, सामाग- तंदुलमेत्तो वा एवमादी । पयत्थंतरं नाम जो गावि भणइ एसो अस्सोत्ति । गरहा णामं तहेव काणं काणित्ति, एवमादी । — जिनदास चूर्णि, पृ. १४८