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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
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करना है, अथवा स्मरण, कीर्तन, क्रीड़ा, प्रेक्षण, एकान्त भाषण, संकल्प, अध्यवसाय एवं क्रियानिष्पत्ति, ये आठ मैथुनांग भी हैं। इन सब मैथुनों से मन-वचन-काया से, कृत-कारित-अनुमोदनरूप से यावज्जीवन के लिए विरत होना सर्व-मैथुन-विरमण का स्वरूप है। साधु और साध्वी को अपनी-अपनी जाति के अनुसार विजातीय के प्रति सर्वमैथुन का प्रत्याख्यान ग्रहण करना और यावज्जीवन ब्रह्मचर्य महाव्रत के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होकर पालन करना आवश्यक है।
सर्व-परिग्रह-विरमण : विश्लेषण- सचित्त-अचित्त तथा विद्यमान या अविद्यमान, स्वाधीन या अस्वाधीन पदार्थों के प्रति मूर्छाभाव को परिग्रह कहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से परिग्रह के दो प्रकार हैं। धन, धान्य, क्षेत्र (खेत या खुला स्थान), वास्तु (मकान), हिरण्य, सुवर्ण, दासी-दास, द्विपद-चतुष्पद एवं कुप्य आदि बाह्यपग्रह हैं। चार कषाय, नौ नोकषाय, मिथ्यात्व आदि आभ्यन्तर परिग्रह हैं। परिग्रह के तीन भेद भी शास्त्र में बताये गए हैं—(१) शरीर, (२) कर्म और (३) उपधि। फिर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से परिग्रह के चार प्रकार भी चूर्णिकार ने सूचित किये हैं—द्रव्यदृष्टि से अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, बहुमूल्य-अल्पमूल्य, सचित्त (शिष्य-शिष्या आदि), अचित्त आदि सर्वद्रव्य परिग्रह (मूर्छाभाव) के विषय हैं। क्षेत्रदृष्टि से समग्र लोक उसका विषय है। कालदृष्टि से दिन और रात उसका विषय है और भावदृष्टि से अल्पमूल्य और बहुमूल्य वस्तु के प्रति आसक्ति, मूर्छा, राग, द्वेष, लोभ, मोह आदि भाव उसके विषय हैं। इस प्रकार समग्र परिग्रह से मनवचन-काया से, कृत-कारित-अनुमोदनरूप से सर्वथा विरत होना सर्वपरिग्रहविरमण का स्वरूप है। साधु या साध्वी को गुरु या गुरुणी के समक्ष अपरिग्रह नामक पंचम महाव्रत के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होते समय सर्व-परिग्रह से विरत होना आवश्यक है। उसके पास जो भी संयम पालन के लिए आवश्यक वस्त्र-पात्रादि उपकरण या शरीरादि रहें, उन्हें भी ममता-मूर्छारहित होकर रखना या उनका उपयोग करना है।
___छठा रात्रिभोजनविरमण व्रत : एक चिन्तन– रात्रिभोजन को इसी शास्त्र के तृतीय अध्ययन में अनाचीर्ण तथा छठे अध्ययन में उल्लिखित छह व्रतों (वयछक्कं) में तथा उत्तराध्ययन में रात्रिभोजनत्याग को कठोर आचारगुणों में से एक गुण बताया गया है, तथा इस अध्ययन में पांच विरमणों को महाव्रत और सर्वरात्रिभोजनविरमण को 'व्रत' कहा गया है। यद्यपि रात्रिभोजनत्याग को महाव्रतों की तरह ही दुष्कर माना गया है, रात्रिभोजनविरमण को साधु-साध्वियों के लिए अनिवार्य और निरपवाद माना गया है। ऐसी स्थिति में प्रथम के पांच विरमणों को महाव्रत कहने और रात्रिभोजनविरमण को व्रत कहने में आचरण की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं पड़ता। तथापि साधु-साध्वियों के लिए प्रथम पांच व्रतों को प्रधान गुणों की दृष्टि से महाव्रत और सर्वरात्रिभोजनविरमणव्रत को उत्तर (सहकारी) गुणरूप मान कर उसे मूलगुणों से पृथक् समझाने हेतु केवल 'व्रत' संज्ञा दी है। यद्यपि मैथुन-सेवन करने वाले के
६९. (क) जिनदास चूर्णि, पृ. १५० (ख) स्मरणं, कीर्तनं केलिः , प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ।
संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च ॥
एतन्मैथुनमष्टांगम् ।.... ७०. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.)
(ख) जिनदास चूर्णि, पृ. १५१