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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
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हेतु से व्रत ग्रहण करने पर व्रत का अभाव हो जाता है, आत्महित से बढ़कर कोई स्वाधीन सुख नहीं है। इसीलिए भगवान् ने इहलौकिक-पारलौकिक सुखाभिलाषा, समृद्धि या भोगाकांक्षा के हेतु आचार को स्वीकार या पालन करने की अनुज्ञा नहीं दी।
उवसंपजित्ताणं विहरामि : भावार्थ उपसम्पद्य का अर्थ है स्वीकार करके। इसका भावार्थ यह है कि गुरु के समीप, सुसाधु (शिष्य) की विधि के अनुसार इन (महाव्रतों तथा रात्रिभोजनविरमण व्रत) को ग्रहण करके विहरण-विचरण करूंगा। वृत्तिकार के अनुसार ऐसा न करने पर अंगीकृत व्रतों का भी अभाव हो जाता है। तात्पर्य यह है कि गुरुचरणों में व्रतों का आरोहण करके उनका सम्यक् अनुपालन करता हुआ मैं अप्रतिबद्ध रूप से अभ्युद्गत विहारपूर्वक ग्राम, नगर, पट्टन आदि में विचरण करूंगा। अगस्त्यचूर्णि में इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार किया है—अथवा 'भगवान् से गणधर पांच महाव्रतों के अर्थ को सुन कर ऐसा कहते हैं कि हम इन्हें ग्रहण करके विहार करेंगे।' अहिंसा महाव्रत के सन्दर्भ में : षट्काय-विराधना से विरति
[४९] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, दिया वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से पुढविं वा भित्तिं वा सिलं वा लेलुं वा ससरक्खं वा कायं ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण व पाएण वा कटेण वा कलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा सलागहत्येण वा नाऽऽलिहेजा, न विलिहेजा, न घट्टेजा, न भिंदेज्जा, अन्नं नाऽऽलिहावेजा, न विलिहावेजा, न घट्टावेज्जा, न भिंदावेजा, अन्नं आलिहंतं वा, विलिहत्तं वा, घतं वा, भिंदंतं वा, न समणुजाणेजा । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि, करेंतं+ पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ १८॥
[५०] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, से उदगं वा ओसं वा हिमं वा महियं वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं वा, उदओल्लं' वा कायं, उदओल्लं वा वत्थं, ससिणिद्धं वा कायं, ससिणिद्धं वा वत्थं, नाऽऽमुसेजा, न संफुसेजा, न आवीलेज्जा, न पवीलेजा, न अक्खोडेजा, न पक्खोडेजा, न आयावेजा, न पयावेजा, अन्नं नाऽऽमुसावेजा, न संफुसावेजा, न आवीलावेजा, न पवीलावेजा, न अक्खोडावेज्जा, न पक्खोडावेजा, न आयावेजा, न पयावेजा, अन्नं आमुसंतं वा, संफुसंतं वा, आवीलंतं वा, पवीलंतं वा,
७४. (क) अत्तहियट्ठताए—अप्पणो हितं—जो धम्मो मंगलमिति भणितं तदटुं । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८६ (ख) आत्महितो—मोक्षस्तदर्थं, अन्येनान्यार्थं तत्त्वतो व्रताभावमाह, तदभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादि भावात् ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १५० पाठान्तर-+ करंतं ।
Oससणिद्धं ।