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दशवैकालिकसूत्र
महाव्रतस्वीकार गुरु की साक्षी से ही उचित होता है, इसलिए शिष्य गुरु को सम्बोधित करके प्रतिज्ञाबद्ध होने का निवेदन करता है। चूर्णिकार का मत है कि गणधरों ने भगवान् से अर्थ (प्रतिज्ञावस्तु ) ५५ सुनकर व्रत अंगीकार करते समय 'तस्स भंते० ' इत्यादि उद्गार प्रकट किये। तभी से लेकर आज भी व्रतग्रहण करते समय शिष्य द्वारा गुरु को आमंत्रण करने के लिए 'भंते' शब्द का प्रयोग होता आ रहा है।
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अहिंसा महाव्रत को प्राथमिकता देने के कारण— प्रश्न होता है— अहिंसा महाव्रत को ही प्राथमिकता क्यों दी गई है ? अन्य व्रतों (महाव्रतों) को नहीं ? यहां अहिंसा महाव्रत को प्राथमिकता देने के पांच कारण प्रस्तुत किये जाते हैं – (१) 'पढमे भंते, महव्वए० ' पाठ में 'प्रथम' शब्द सापेक्ष है, मृषावाद विरमण आदि की अपेक्षा से इसे प्रथम कहा गया है। (२) सूत्रक्रम के अनुसार भी सर्वप्राणातिपातविरमण महाव्रत को प्रथम स्थान दिया गया है। (३) चूर्णिद्वय के अनुसार— अहिंसा मूलव्रत है अथवा प्रधान मूलगुण है, क्योंकि 'अहिंसा परमधर्म है'। शेष महाव्रत इसी (अहिंसा) के अर्थ (प्रयोजन) में विशेषता लाने वाले हैं, अथवा शेष महाव्रत उत्तर गुण हैं, क्योंकि वे अहिंसा के ही अनुपालन के लिए प्ररूपित हैं। (४) पांचों महाव्रतों में अहिंसा ही प्रधान है, शेष सत्य आदि महाव्रत, धान्य की रक्षा के लिए खेत के चारों ओर लगाई गई बाड़ के समान अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए होने से उसी अंगभूत हैं। कहा भी है-—
'सभी जिनवरों ने एक प्राणातिपात विरमण को ही मुख्य व्रत कहा है, शेष (मृषावादविरमणादि) व्रत उसी की रक्षा के लिए है । '
सब पापों में मुख्य पाप हिंसा ही है, इसलिए उसकी निवृत्ति करने वाला अहिंसा महाव्रत भी सब में प्रधान है। एक आचार्य ने कहा है—असत्यवचन आदि सभी आत्मा के परिणामों की हिंसा के कारण होने से एक प्रकार से हिंसारूप ही हैं। (अत: हिंसा से विरतिरूप अहिंसा महाव्रत ही मुख्य है ।) मृषावादविरमण आदि शेष महाव्रतों का कथन केवल शिष्यों को स्पष्टतया समझाने के लिए किया गया है। इन सब कारणों से अहिंसा महाव्रत को प्राथमिकता दी गई है /५६
५५.
५६.
(क) भदन्तेति गुरोरामंत्रणम् भदन्त भवान्त भयान्त इति साधारणा श्रुतिः । एतच्च गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति ज्ञापनार्थम् । — हारि. वृत्ति, पत्र १४४
—अ. चू., पृ. ७८
(ख) 'भंते! इति भगवतो आमंत्रणं ।' (ग) गणहरा भगवतो सकासे अत्थं सोऊण वतपडिवत्तीए । एवमाहु-तस्स भंते० । तहा जे वि इमम्मि काले ते वि वताइं पडिवज्जमाणा एवं भांति तस्स भंते । —अ. चू., पृ. ७८
— जिनदास चूर्णि, पृ. १४४ हारि वृत्ति, पत्र १४४
(क) पढमं ति नाम सेसाणि मुसावादादीणि पडुच्च एतं पढमं भण्णइ । (ख) सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमम् । (ग) महाव्वतादौ पाणातिवाताओ वेरमणं पहाणी मूलगुण इति, जेण 'अहिंसा परमो धम्मो', सेसाणि महव्वताणि एतस्सेव अत्थविसेसगाणीति तदणंतरं । — अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८२
(घ) ........ एतं मूलवयं, अहिंसा परमो धम्मोत्ति, सेसाणि पुण महव्वयाणि उत्तरगुणा, एतस्य चेव अणुपालणत्थं — जिनदास चूर्णि, पृ. १४७
परूवियाणि ।'
(ङ) दशवै. ( आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. २३८
'एगं चिव इत्थ वयं निदिट्ठं जिणवरेहिं सव्वेहिं । पाणाइवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खट्ठा ॥' (च) आत्मपरिणामहिंसनंहेतुत्वात् सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥
- दशवै. (आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. ७३