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दशवैकालिकसूत्र
में सचेतनता सिद्ध होती है। अनुमान प्रमाण से भी इसकी सचेतनता सिद्ध होती है—(१) तेजस्काय सजीव है, क्योंकि ईन्धन आदि आहार देने से उसकी वृद्धि और न देने से उसकी हानि (मन्दता) होती है, जैसे—जीवित मनुष्य का शरीर । अर्थात् —जीवित मनुष्य का शरीर आहार देने से बढ़ता है और न देने से घटता है, अतः वह सचेतन है। इसी प्रकार तेजस्काय (अग्निकाय) भी ईन्धन देने से बढ़ता और न देने से घटता है, इसलिए वह भी सचित्त है। (२) अंगार आदि की प्रकाशशक्ति जीव के संयोग से ही उत्पन्न होती है, क्योंकि वह देहस्थ है। जो-जो देहस्थ प्रकाश होता है, वह-वह आत्मा के संयोग के निमित्त से होता है। जैसे—जुगनू के शरीर का प्रकाश। जुगनू के शरीर में प्रकाश तभी तक रहता है, जब तक उसके साथ आत्मा का संयोग रहता है। इसी प्रकार अंगार आदि का प्रकाश भी तभी तक रहता है, जब तक उसमें आत्मा रहे।४
वायुकायिक जीव- भगवान् ने अपने केवलज्ञानालोक में देखकर वायुकाय को सचित्त कहा है, इसलिए आगमप्रमाण से वायुकाय की सजीवता सिद्ध है। अनुमान-प्रमाण से भी देखिये (१) वायु सचेतन है, क्योंकि वह दूसरे की प्रेरणा के बिना अनियतरूप से तिर्यग्गमन करता है, जैसे मृग। मृग अन्य की प्रेरणा के बिना ही तिर्यग् गमन करता है, अत: वह सजीव है, इसी प्रकार वायु भी अन्य से प्रेरित हुए बिना तिर्यग्गमन करता है, इसलिए वह सचेतन है। इस प्रकार अनुमानप्रमाण से भी वायुकाय की सचेतनता सिद्ध होती है।५ ___वायु चलनधर्मा प्रसिद्ध है। वही जिनका काय-शरीर है, वे जीव वायुकाय या वायुकायिक कहलाते हैं। इनके उत्कलिकावायु, मण्डलिकावायु, घनवायु, तनुवायु, गुंजावायु, शुद्धवायु, संवर्तकवायु आदि प्रकार हैं।१६
वनस्पतिकायिक जीव- वनस्पति लता आदि के रूप में प्रसिद्ध है। वही (वनस्पति ही) जिनका कायशरीर है, वे जीव वनस्पतिकाय या वनस्पतिकायिक कहलाते हैं। बीज, अंकुर, तृण, कपास, गुल्म, गुच्छ, वृक्ष, शाक, हरित, लता, पत्र, पुष्प, फल, मूल, कन्द, स्कन्ध आदि वनस्पतिकायिक जीवों के प्रकार हैं। वनस्पतिकाय की सजीवता सर्वज्ञ आप्तपुरुषों के वचनों से (आगम प्रमाण से) सिद्ध है। अनुमान प्रमाण से भी इसकी सजीवता देखिये वनस्पति सचित्त है, क्योंकि उसमें बाल्य, यौवन, वृद्धत्व आदि अवस्थाएं तथा छेदन-भेदन करने से म्लानता आदि सचेतन के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे—जीवित मानवशरीर। जैसे—जीवित मानव का शरीर, बाल्यादि अवस्थाओं तथा छेदन-भेदन आदि करने से म्लानता आदि के कारण सचेतन है, वैसे वनस्पतिकाय भी सचेतन है। वर्तमान युग में जीवज्ञानशास्त्री प्रो. जगदीशचन्द्र बोस ने प्रयोग करके वनस्पति की सजीवता सिद्ध कर दी
१४. (क) तेजः उष्णलक्षणं प्रतीतं, तदेव कायः-शरीरं येषां ते तेजस्कायाः, तेजस्काया एव तेजस्कायिकाः ।
.. —हारि. वृत्ति, पत्र १३८ (ख) दशवैकालिक (आचामणिमंजूषा टीका) भा. १, पृ. २१२-२१३ १५. दशवैकालिक आचारमणिमंजूषा टीका, भा. १, पृ. २१५ १६. (क) वायुश्चलनधर्मा प्रतीत एव, स एव कायः -शरीरं येषां ते वायुकायाः, वायुकाया एव वायुकायिकाः ।
—हारि. वृत्ति, पत्र १३८ . (ख) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. १२३
(ग) प्रज्ञापना, पद १ १७. दशवैकालिक आचारमणिमंजूषा टीका, भा. १, पृ. २१७