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दशवैकालिकसूत्र
द्वीन्द्रियादि अनेक भेदों के पुनः बहुत से अर्थात् संख्यात भेद हैं। इस दृष्टि से 'अणेगे' और 'बहवे' इन दो विशेषणों का प्रयोग किया गया। इनमें श्वासोच्छ्वास आदि प्राण विद्यमान होते हैं, इसलिए 'पाणा' (प्राणी) विशेषण प्रयुक्त किया गया है।
बस के प्रकार- त्रस दो प्रकार के होते हैं—गतित्रस और लब्धित्रस। जिन जीवों में अभिप्रायपूर्वक गति करने की शक्ति होती है, वे लब्धित्रस कहलाते हैं और जिन जीवों की गति अभिप्रायपूर्वक नहीं होती, केवल गतिमात्र होती है, वे गतित्रस कहलाते हैं। स्थानांगसूत्र में तीन प्रकार के त्रस बताए हैं, उनमें अग्नि और वायु को गतित्रस और द्वीन्द्रियादि उदार त्रस प्राणियों को लब्धित्रस कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में लब्धित्रस के लक्षण बताए
त्रस के लक्षण— शास्त्रकार ने मूल में ही 'अभिक्कंतं' पद से लेकर 'आगइ-गइ-विनाया' पद तक त्रसजीवों के लक्षण बतलाए हैं। तात्पर्य यह है कि त्रसजीवों का यह स्वभाव होता है कि वे स्वतः प्रेरणा से सम्मुख आते हैं, पीछे भी हट जाते हैं, कई त्रसजीव अपने शरीर को सिकोड़ लेते हैं, कई फैला देते हैं। कई त्रसजीव आपत्ति या कष्ट आ पड़ने पर अथवा अमुक प्रयोजनवश जोर-जोर से चिल्लाते हैं, आवाज करते हैं, भौंकते हैं, गर्जते या गुर्राते या चिंघाड़ते हैं। भयभीत होने पर इधर-उधर स्वयं प्रेरणा से भागदौड़ भी करते हैं। कुत्ते आदि कई पशु भूलभटक गए हों, दूर चले गए हों तो भी लौट कर अपने मालिक के यहां आ जाते हैं। कई पशुओं में यह विशिष्ट ज्ञान होता है कि हम अमुक जगह जा रहे हैं या अमुक जगह से आये हैं। यदि उन्हें कोई जबरन पीछे हटाता या आगे भगाता है तो वे यह जानते हैं कि हमें पीछे हटाया या आगे भगाया जा रहा है। ओघसंज्ञावश कई त्रस धूप से छाया में और छाया से अरुचि होने पर धूप में स्वतः चले जाते हैं।"
उत्पत्ति की दृष्टि से त्रसजीवों के प्रकार- शास्त्रकार ने मूल में अण्डज आदि कई प्रकार त्रसजीवों की उत्पत्ति की अपेक्षा से दिये हैं। उनका अर्थ इस प्रकार है—(१) अण्डज–अण्डे से पैदा होने वाले मोर, कबूतर आदि, (२) पोतज जिन पर कोई आवरण लिपटा हुआ नहीं होता, जो सीधे शिशुरूप में माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं। जैसे हाथी, चर्मजलौका आदि।(३) जरायुज —जरायु का अर्थ गर्भवेष्टन या झिल्ली होती है जो शिशु को आवृत किये रहती है। गर्भ से जरायुवेष्टित दशा में निकलने वाले जरायुज होते हैं, जैसे—गाय, भैंस, मनुष्य आदि।२८
३५. (क) 'अणेगा'—अनेकभेदा बेइंदियादतो । 'बहवे' इति बहुभेदा जाति-कुलकोडि-जोणीपमुहसतसहस्सेहिं पुणरवि संखेजा।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७७ (ख) अणेगे नाम एक्कंमि चेव जातिभेदे असंखेज्जा जीवा ।
-जिनदास चूर्णि, पृ. १३९ (ग) प्राणा-उच्छ्वासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिनः ।
—हारि. वृत्ति, पत्र १४१ ३६. (क) दशवै. (मुनि नथमल जी), पृ. १२८ (ख) तिविहा तसा प. तं. तेउकाइया वाउकाइया उराला तसा पाणा ।
-स्थानांग, स्थान ३/३२६ ३७. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म्), पृ. ६७ ३८. (क) अंडसंभवा अंडजा जहा—हंसमयूरायिणो ।
—जिनदास चूर्णि, पृ. १३९ (ख) पोता एव जायन्त इति पोतजाः...ते च हस्तीवल्गुली-चर्मजलौकादयः । -हारि. टीका, पृ. १४१ (ग) जरायुवेष्टिता जायन्ते इति जरायुजाः,-गो-महिष्यजाविकमनुष्यादयः । —हारि. टीका, पृ. १४१