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दशवैकालिकसूत्र
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(१) दण्डसमारम्भ मन से करना, कराना और अनुमोदन करना, (२) दण्डसमारम्भ वचन से करना, कराना और अनुमोदन करना, (३) दण्डसमारम्भ काया से करना, कराना और अनुमोदन करना। प्रस्तुत मूलपाठ में पहले कृत, कारित और अनुमोदन से दण्डसमारम्भ कराने का निषेध किया गया है, किन्तु उसके साथ मन से, वचन से और काया से शब्द नहीं जोड़े गये थे, किन्तु बाद में 'तिविहं तिविहेणं' पदों का संकेत करके 'मणेणं वायाए काएणं' एवं 'न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि' का उल्लेख करके शास्त्रकार ने इसे स्पष्ट कर दिया है ।४३
दण्ड शब्द को हिंसाप्रयोजक मानकर अगस्त्य चूर्णि में हिंसा के आधार पर इन नौ भंगों का स्पष्टीकरण किया है— (१) मन से दण्डसमारम्भ करता है— स्वयं मारने का सोचता है कि इसे कैसे मारूं ? मन से दण्डसमारम्भ कराना, , जैसे—वह इसे मार डाले, ऐसा मन में सोचना । मन से अनुमोदन — कोई किसी को मार रहा हो, उस समय मन ही मन राजी (सन्तुष्ट ) होना, इसी तरह वचन से हिंसा करना --- जैसे इस प्रकार का वचन बोलना — जिससे दूसरा कोई मर जाए। किसी को मारने का आदेश देना वचन से हिंसा कराना है। इसी प्रकार 'अच्छा मारा' यों कहना, वचन से हिंसा का अनुमोदन करना है। स्वयं किसी को मारे—यह काया से स्वयं हिंसा करना है, किसी को मारने का हाथ आदि से संकेत करना काया से हिंसा कराना है और कोई किसी को मार रहा हो, उसकी शारीरिक चेष्टाओं से प्रशंसात्मक प्रदर्शन करना — हिंसा का काया से अनुमोदन है।
'तस्स० पडिक्कमामि, निंदामि गरिहामि० - अकरणीय कार्य का प्रत्याख्यान ( परित्याग) करने की जैनपद्धति का क्रम इस प्रकार है- (१) अतीत का प्रतिक्रमण, (२) वर्त्तमानकाल का संवर और (३) भविष्यत्काल का प्रत्याख्यान । इस दृष्टि से यहां 'तस्स' शब्द दिया है, वह 'देहलीदीपकन्याय' से 'निंदामि गरिहामि' के साथ भी सम्बन्धित है। अर्थात् — प्रतिक्रमण का अर्थ है— पापकर्मों से निवृत्त होना। तात्पर्य यह है कि गतकाल में जो दण्डसमारम्भ मैंने किया हैं उनसे निवृत्त होना —— वापस लौटता हूं। 'निन्दामि' का अर्थ है— निन्दा करता हूं। यह निन्दा किसी दूसरे की नहीं, स्वयं की निन्दा है, जो पश्चात्तापपूर्वक, आत्मालोचनपूर्वक स्वयं की जाती है। 'गर्हामि' का अर्थ है —— घृणा करता हूं। अर्थात् —– जो भी पाप या दण्डसमारम्भ मुझसे हुए हैं, उनसे घृणा करता हूं।
निन्दा और गर्हा में अन्तर - (१) निन्दा आत्मसाक्षिकी होती है और गर्हा (जुगुप्सा) परसाक्षिकी। (२) अगस्त्य चूर्णि के अनुसार — पहले जो अपराध या पाप अज्ञानवश किये हों, उनकी निन्दा यानी कुत्सा करना । गर्हा का अर्थ है—उन दोषों-अपराधों को गुरुजनों या सभा के समक्ष प्रकट करना, (३) जिनदास महत्तर के अनुसार— निन्दा (आत्मनिन्दा) है—पहले जो अज्ञानभाव से दोष या अपराध किया हो, उसके सम्बन्ध में पश्चात्तापपूर्वक हृदय में दाह का अनुभव करना, जैसे मैंने बहुत बुरा किया, बुरा कराया, बुरे का अनुमोदन किया इत्यादि । और गर्हा है— वर्तमान और अनागत काल में उस अपराध को न करने के लिए अभ्युद्यत होना ।
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४४.
(क) दशवै. अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७८
(ख) दशवै. जिन. चूर्णि, पृ. १४२ - १४३
(ग) तिस्रो विधा- विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविध-दण्ड इति गम्यते तम् । त्रिविधेन करणेन मनसा वचसा कायेन । हारि. टीका, पत्र १४३ (घ) अ. चू., पृ. ७८
(क) 'योऽसौ त्रिकालविषयो दण्डस्तस्य सम्बन्धिनमतीतमवयवं प्रतिक्रमामि, न वर्तमानमनागतं वा, अतीत्यस्यैव
प्रतिक्रमणात्, प्रत्युत्पन्नस्य संवरणादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति... प्रतिक्रमामीति भूताद्दण्डान्निवर्तेऽहमित्युक्तं भवति