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दशवैकालिकसूत्र
समभाव), आत्मौपम्य भाव, शुद्ध प्रेम, अनुकम्पा, सर्वभूतमैत्री, करुणा आदि। विधेयात्मक अहिंसा का पालन आत्मौपम्य (आत्मवत् भाव) से होता है। ।
शास्त्र में बताया है जैसे मुझे दुःख अप्रिय है, वैसे ही समस्त जीवों को भी अप्रिय है।२२ अथवा जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सब जीवों को है, ऐसा जानकर अथवा जैसे मैं जीना चाहता हूं, वैसे ही सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता। अत: मुझे किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। इसी प्रकार निषेधात्मक अहिंसा के पीछे परदुःखानुभूति के साथ आत्मानुभूति की जो भव्य भावना है वह भी अहिंसा है। यह (अहिंसा) धर्म.ध्रुव, नित्य, शाश्वत और जिनोपदिष्ट है।
हिंसा : स्वरूप और प्रकार- अहिंसा को हिंसा का प्रतिपक्षी बताया गया है, इसलिए जैन शास्त्रीय दृष्टि से हिंसा का स्वरूप समझ लेना भी आवश्यक है। आचार्य जिनदास महत्तर ने हिंसा का अर्थ किया है—'दुष्प्रयुक्त' (दुष्ट) मन, वचन एवं काया के योगों से प्राणियों का जो प्राण-हनन किया जाता है, वह हिंसा है। निष्कर्ष यह है कि किसी भी प्रकार के प्रमादवश, अनुपयुक्त या दुष्प्रयुक्त मन-वचन-काया के योगों से किसी भी प्राणी के प्राणों को किसी भी प्रकार से हानि पहुंचाना हिंसा है।
हिंसा तीन प्रकार की है– (१) द्रव्यहिंसा, (२) भावहिंसा और (३) उभयहिंसा।
१. द्रव्यहिंसा- आत्मा के परिणाम शुद्ध होने पर भी अकस्मात् अनुपयोगवश अनिच्छा से ही किसी जीव को पीड़ा हो जाना या प्राणों की हानि हो जाना द्रव्यहिंसा है। जैसे— समितिगुप्तिधारक पंचमहाव्रती साधु के द्वारा विहारादि के समय या चलते-फिरते, बैठते-उठते आदि क्रियाएं करते समय किसी भी जीव को पीड़ा न पहुंचाने, तथा सब जीवों की रक्षा करने की भावना होते हुए भी अकस्मात् अनुपयोगवश द्वीन्द्रिय आदि लघुकाय जीव का पैर के नीचे आकर मर जाना या प्राणभंग हो जाना द्रव्यहिंसा है। यह हिंसा औपचारिक है, इसमें भावहिंसा नहीं है।
२. भावहिंसा- किसी प्राणी को प्राणों से रहित करने की कामना, भावना या इच्छारूप आत्मा का अविशुद्ध परिणाम भावहिंसा है। इसमें जीव केवल दुष्ट भावों से प्राणियों के घात की इच्छा करता है, किन्तु किसी कारणवश घात नहीं कर पाता। अत: वहां द्रव्यहिंसारहित केवल भावहिंसा होती है। जैसे चावल के दाने जितने छोटे शरीर वाला तंदुलमत्स्य एक बड़े मगरमच्छ की भौहों पर बैठा-बैठा सोचता है यह मगरमच्छ कितना आलसी
२१. (क) अहिंसा = जीवदया, प्राणातिपात-विरतिः ।
-दी. टीका, पृ. १ (ख) अहिंसाऽपि भावरूपैव, तेन प्राणिरक्षणमप्यहिंसाशब्दार्थः सिध्यति ।
–दशवै. आचारमणिमंजूषा टीका, भा. १, पृ. ३ (ग) अप्पसमं मन्निजं छप्पिकाए ।
-उत्तरा. अ.६ (घ) दशवै. (गुजराती अनु.), पृष्ठ ४ २२. 'जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । सव्वे जीवा सहसाया दुहप्पडिकूला सव्वेसिं जीवियं पियं। जाणित्तु पत्तेयं सायं ।'
-आचारांग २३. सूत्रकृतांग. २/१/१५ २४. जिनदास.चूर्णि, पृष्ठ २० २५. दशवै. आ. म. मंजूषा व्याख्या, भाग १, पृष्ठ ८/९