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प्रथम अध्ययन: द्रुमपुष्पिका
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से श्रमण अपने अहिंसा, अपरिग्रह और अचौर्य, तीनों महाव्रतों को अक्षुण्ण रख सकेगा। ___ एषणा : परिभाषा और प्रकार- साधु को भिक्षाटन के समय प्रासुक, ग्राह्य, कल्पनीय एवं एषणीय आहारादि की खोज, प्राप्ति और उसके उपभोग के समय जो विवेक रखना होता है, उसे ही एषणा अथवा एषणासमिति कहते हैं। उत्तराध्ययन आदि शास्त्रों में एषणा के तीन प्रकार बताए गए हैं (१) गवेषणाभिक्षाचरी के लिए निकलने पर साधु को आहार के लिए ग्राह्य-अग्राह्य या कल्पनीय-अकल्पनीय के निर्णय के लिए जिन नियमों का पालन करना है, अथवा जिन १६ उद्गम और १६ उत्पादन के दोषों से बचना है, उसे 'गवेषणा' कहते हैं, (२) ग्रहणैषणा–भिक्षाजीवी निर्ग्रन्थ साधु को भिक्षा ग्रहण करते समय जिन १० एषणा-दोषों से बचना है या जिन-जिन नियमों का पालन करना है, उसे ग्रहणैषणा कहते हैं और (३)परिभोगैषणा भिक्षा में प्राप्त आहारादि का उपभोग (सेवन) करते समय जिन मण्डल के ५ दोषों से बचना है, उसे परिभोगैषणा या ग्रासैषणा कहते हैं। प्रस्तुत तृतीय गाथा में 'एषणा में रत' होने का विशेषार्थ है—भिक्षा की शोध, ग्रहण और परिभोग सम्बन्धी तीनों एषणाओं के ४७ दोषों से रहित शुद्ध भिक्षा की एषणा में तत्पर रहना, पूर्ण उपयोग के साथ सर्वदोषों से रहित गवेषणा आदि में रत रहना।
प्रतिज्ञा का उच्चारण- गुरु शिष्य के समक्ष अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा को दोहराते हुए कहते हैं—'हम इस तरह से वृत्ति-भिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन (वध) न हो, अथवा किसी भी दाता को दुःख न हो। इस प्रतिज्ञा के पालन के लिए भिक्षु यथाकृत आहार लेते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पों से रस। ६०
भिक्षा : स्वरूप, प्रकार और अधिकार- वैसे तो कई भिक्षुक (भिखारी) भी भीख मांगते रहते हैं और
५८. (ग) 'दात्रा दानाय आनीतस्य भक्तस्य एषणे ।'
-तिलकाचार्यवृत्ति (घ) दशवै. (गुजराती अनुवाद, संतबालजी), पृ. ५, दशवै. (मुनि नथमलजी) पृ. ११ (ङ) अवि भमर महुयरिगणा अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं । समणा पुण भगवंतो नादिन्नं भोत्तुमिच्छन्ति ।
-दश. नियुक्ति गा. १२४ . ५९. (क) इरिया-भासेसणादाणे उच्चारे समिति इय ।
गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा । आहारोवहि-सेजाए एए तिन्नि विसोहए ॥ उग्गमुप्पायणं पढमे बीए सोहेज एसणं । परिभोगम्मि चउक्कं, विसोहेज जयं जई ॥
-उत्तराध्ययन अ. २४, गा. २, ११, १२ (ख) "एसणतिगंमि निरया....।"
-नियुक्ति गा. १२३ (ग) 'एसणाग्रहणेन गवेषणादित्रय-परिग्रहः ।' .
-हारि. वृत्ति, पत्र ६८ (घ) 'एसणे इति-गवेसण-गहण-घासेसणा सूइता ।'
-अगस्त्य. चूर्णि ६०. जह दुमगणा उ तह नगरजणवया पयणपायणसहावा ।
जह भभरा तह मुणिणो, नवरि अदत्तं न भुंजंति ॥ कुसुमे सहावफुल्ले आहारंति भमरा जह तहा उ । भत्तं सहावसिद्धं समण-सुविहिया गवेसंति ।......-नियुक्ति गा. ९९, १०६, ११३, १२७, १२८, १२९