________________
दशवैकालिकसूत्र
स्नेह से चुपड़ कर धूमनेत्र पर लगाया जाता था और दूसरे पार्श्व पर आग लगाई जाती थी। यह धूमपान खांसी आदि को मिटाने के लिए वर्तिका द्वारा किया जाता था। (३) धूपन-रोग शोक आदि से बचने के लिए या मानसिक आह्लाद के लिए धूप का प्रयोग करना अथवा अपने वस्त्र, शरीर या मकान को धूप से सुवासित करना। ये सब अनाचीर्ण हैं।
विरेचन के तीन प्रयोग : वमन, वस्तिकर्म और विरेचन- वमन ऊर्ध्वविरेक है, वस्तिकर्म मध्यविरेक है और विरेचन अधोविरेक। वमन मदनफल आदि के प्रयोग से आहार को बाहर निकालना, पौष्टिक औषधिसेवन के पूर्व वमन करना आदि। वस्तिकर्म वस्ति—चर्मनली, (वर्तमान में रबर-नली) के द्वारा कटिवात, अर्शरोग आदि को मिटाने के लिए अपानद्वार से तेल आदि चढ़ाना। विरेचन–जुलाब लेकर मल निकालना। ये तीनों आरोग्यप्रतिकर्म हैं। अतः प्रायश्चितसूत्र के अनुसार अरोगप्रतिकर्म की दृष्टि से तथा रूप, बल आदि को बनाए रखने की दृष्टि से वमनादि करना अनाचीर्ण एवं निषिद्ध कहा गया है।
दंतवणे : दो रूप : तीन अर्थ— (१) दन्तवन—दांतों को वन यानी वनस्पति या वृक्षजन्य काष्ठ से साफ करना, (२) मंजन आदि से दांतों को साफ (पावन) करना। (३) दन्तवर्ण दांतों को मिस्सी आदि लगा कर रंगना, दांतों को विभूषित करना।३
गात्राभ्यंग : विश्लेषण— शरीर का तेल, घृत, वसा, चर्बी अथवा नवनीत से मालिश या मर्दन करना, भिक्षु ४१. (क) धूमं पिबति—"मा शिररोगातिणो भविस्संति आरोगपडिकम्मं । अहवा धूमणेत्ति धूमपानसलाका, धूवेति अप्पाणं वत्थाणि वा ।"
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६२ (ख) चरक. सूत्र, ५-२३ (ग) 'तथा नो शरीरस्स स्वीयवस्त्राणां वा धूपनं कुर्यात्, नाऽपि कासाद्यपनयनार्थं तं धूमं योगवर्तिनिष्पादितमापिबेदिति।'
-सू. २-९-१५ टीका, पत्र २९९ ४२. (क) वमनं मदनफलादिना ।
-हारि. टीका, पत्र ११८ (ख) वमनं ऊर्ध्वविरेकः ।
-सू. कृ. १-९-१२ टीका पत्र १८० (ग) वत्थी णिरोहादिदाणत्थं चम्ममयो णालियाउत्तो कीरति, तेण कर्म-अपाणाणं सिणेहादिदाणं वत्थिकम्मं ।
-अ. चू., पृ.६२ (घ) कडिवाय-अरिस-विणासणत्थं च अपाणबारेण वत्थिणा तेल्लादिप्पदाणं वत्थिकम्मं ।
-निशीथ भाष्य, गाथा ४३३०, चूर्णि पृ. ३९२ (ङ) वस्तिकर्म -पुटकेन अधिष्ठाने स्नेहदानम् ।
-हारि. वृत्ति, पत्र ११८ (च) विरेयणं कसायादीहिं सोधणं ।
-अ. चू., पृ.६२ (छ) विरेचनं निरूहात्मकमधोविरेको ।
-सू. १-९-१२, टीका १८० (ज) 'एतानि आरोग्गपडिकम्माणि रूव-बलत्थमणातिण्णं ।'
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६२ (झ) प्रायश्चित्तयोग्य-वण्ण-सर-रूव-मेहा, वंग-वलीपलित-णासट्टा वा ।
. दीहाउ-तट्टता वा, थूल-किसट्ठा व तं कुज्जा ॥ -निशीथ भाष्य, गाथा ४३३१ ४३. (क) दन्ताः पूयन्ते—पवित्रीक्रियन्ते येन काष्ठेन तद्दन्तपावनम् ।
—प्रवचन. ४-२१०, टीका प. ५१ (ख) दन्तप्रधावनम् चांगुल्यादिना क्षालनम् ।
—हारि. टीका, पत्र ३१७ (ग) दंतमणं-दसणाणं (विभूसा)
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६२