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चउत्थं अज्झयणं : चतुर्थ अध्ययन छज्जीवणियाः षड्जीवनिका
प्राथमिक
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यह दशवैकालिक सूत्र का चतुर्थ अध्ययन है। इसका नाम 'षड्जीवनिका' अथवा 'षड्जीवनिकाया' है। इसका दूसरा नाम 'धर्मप्रज्ञप्ति' भी है, जिसका उल्लेख प्रारम्भ में ही शास्त्रकार ने किया है। नियुक्तिकार के मतानुसार यह अध्ययन आत्मप्रवाद (सप्तम) पूर्व से उद्धृत किया गया है। यह अध्ययन गद्य और पद्य दोनों में ग्रथित है। इसका गद्यविभाग प्रारम्भ में प्रश्नोत्तररूप में निबद्ध
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इस अध्ययन के प्रारम्भ में समग्र विश्व के छह प्रकार (निकाय) के जीवों के स्वरूप और प्रकार का वर्णन होने से इसका नाम 'षड्जीवनिका' या 'षड्जीवनिकाया' रखा गया है। नियुक्तिकार के अनुसार जीवाजीवाभिगम, आचार, धर्मप्रज्ञप्ति, चारित्रधर्म, चरण और धर्म, ये छहों शब्द 'षड्जीवनिका' के पर्यायवाची हैं। परन्तु इससे आगे का वर्णन स्पष्टतः श्रुतधर्म और चारित्रधर्म को अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म को व्यक्त करता है, इसलिए इसका दूसरा नाम 'धर्मप्रज्ञप्ति' भी रखा गया है। वस्तुतः इस अध्ययन का 'धर्मप्रज्ञप्ति' नाम समग्र-अध्ययनस्पर्शी है और वह उचित भी है। उसी के अन्तर्गत 'श्रुतधर्म' या सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान में 'षड्जीवनिकाय' का समावेश हो जाता
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यह एक सैद्धान्तिक तथ्य है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना अथवा श्रुतधर्म के बिना चारित्र सम्यक् नहीं होता, सम्यक्चारित्र के बिना मोक्ष नहीं हो सकता।
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-अ. ४, सू. १. -दशवै. नियुक्ति १/१६
(क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. १९८ (ख) ".....अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ।" 'आयप्पवायपुव्वा निजूढा होइ धम्मपन्नत्ती ।' जीवाजीवाभिगमो आयारो चेव धम्मपन्नत्ती । ततो चरित्तधम्मो चरणे धम्मे य एगट्ठा ॥ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होंति चरणगुणा । अगुणिस्स णत्थि मोक्खो, नत्थि अमुक्खस्स निव्वाणं ॥
–दशवै. नियुक्ति ४/२३३
-उत्तरा. अ. २८, गाथा ३०