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स्थानांगसूत्र में १० प्रकार के मिथ्यात्व का निरूपण है—जीव को अजीव, अजीव को जीव, धर्म (संवर-निर्जरारूप) को अधर्म और अधर्म को धर्म, साधु को असाधु और असाधु को साधु, अष्टविध कर्मों से मुक्त को अमुक्त और अमुक्त को मुक्त आदि जाने-माने और श्रद्धे तो मिथ्यात्व है। तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण भी यही बताया गया है—जीवादि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धान करना। तत्त्व नौ हैं—जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष। इन नौ तत्त्वों का मुख्य सम्बन्ध जीव से है। जीव न हो तो पुण्य-पाप आदि से लेकर मोक्ष तक के जानने मानने आदि का कोई प्रयोजन नहीं है। अजीव का ज्ञान तथा अजीवतत्त्व का श्रद्धान जीव से उसे पृथक् करने तथा जीव या जीवतत्त्व को निश्चित करने के लिए आवश्यक है। इसी दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन में नौवें सूत्र तक सर्वप्रथम विश्व के समग्र जीवों को छह निकायों में विभक्त करके उनका स्वरूप, उनकी चेतना, उनके सुख-दुःख संवेदन, उनके प्रकार आदि का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। यद्यपि पृथ्वीकाय आदि पांच प्रकार के एकेन्द्रिय (स्थावर) जीव लोकप्रसिद्ध नहीं हैं और साधारण छद्मस्थ साधक चर्मचक्षुओं से उनकी सजीवता का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं कर सकता, तथापि सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकर भगवन्तों के वचन पर श्रद्धा रख कर उनमें जीवत्व मानना, तथा युक्तियों एवं तर्कों से उनमें जीवत्व जानना सम्यग्दृष्टि साधक का कर्त्तव्य है, जिससे कि वह अहिंसादि महाव्रतों का सम्यक् पालन कर सके। इसके लिए आगे इसी अध्ययन में कोष्ठकान्तर्गत १२ गाथाएं जिनप्रज्ञप्त पृथ्वीकायादि षड्जीवनिकायों के जीवत्व (चैतन्य) के अस्तित्व की श्रद्धा करने वाले साधक को ही उपस्थापन के योग्य मानने के विषय में दी गई हैं। यद्यपि इस अध्ययन में अजीव का साक्षात् वर्णन नहीं है, तथाऽपि 'अन्नत्थ सत्थपरिणएणं' आदि वाक्यों द्वारा तथा जीव-अजीव को न जानने वाला संयम को कैसे जान सकता है ? इत्यादि गाथाओं द्वारा जीव-अजीव का यथार्थ ज्ञान तथा श्रद्धान अनिवार्य माना गया है। दसवें से १७वें सूत्र तक अहिंसादि चारित्रधर्म के पालन की प्रतिज्ञा का निरूपण है। हिंसा-अहिंसा का, सत्य-असत्य का, चौर्य-अचौर्य का, ब्रह्मचर्य-अब्रह्मचर्य का तथा परिग्रह-अपरिग्रह का आचरण जीव और अजीव के निमित्त से होता है, इसलिए जीव-अजीव का निरूपण करने के पश्चात् अहिंसादि चारित्रधर्म के स्वीकार का निरूपण है।
(क) दसविहे मिच्छत्ते पन्नत्ते, ते धम्मे अधम्मसन्ना, जीवे अजीवसन्ना...। -स्थानांग, स्था. १० (ख) 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।'
-तत्त्वार्थसूत्र अ. १, सू. २ पुढवीक्कातिए जीवे सद्दहती जो जिणेहि पण्णत्ते । अभिगतपुण्णपावो से हु उवट्ठावणे जोग्गो ॥७॥
-दश. मू. पा., पृ.७ "जीवाजीवे अयाणंतो कहं सो नाहीइ संजमं?"
-दश. मू. पा., अ. ४-३५, पृ. १६
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