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दशवैकालिकसूत्र
श्रोत्र, इन पांच इन्द्रियों वाले जीव, यथा—) समस्त तिर्यञ्चयोनिक, समस्त नारक, समस्त मनुष्य, समस्त देव और समस्त प्राणी परम सुख-स्वभाव वाले हैं। यह छठा जीवनिकाय त्रसकाय कहलाता है ॥९॥
विवेचन धर्मप्रज्ञप्ति का प्ररूपण- प्रस्तुत धर्मप्रज्ञप्ति, जो कि षड्जीव-निकाय अध्ययन का ही दूसरा नाम है, भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित सु-आख्यात और सुप्रज्ञप्त है, यह प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में कहा गया है। किन्तु 'आयुष्मन्' सम्बोधन के द्वारा कौन किससे कह रहा है ? और किसने किस भगवान् से सुना है ? यह भी यहां स्पष्ट नहीं है। हरिभद्रसूरि तथा चूर्णिकार जिनदास महत्तर का इस विषय में स्पष्टीकरण यह है कि 'आयुष्मन् !' सम्बोधन गणधर श्रीसुधर्मास्वामी के द्वारा अपने प्रिय सुशिष्य जम्बूस्वामी के लिए किया गया है। तथा 'मैंने सुना है' का अभिप्राय है सुधर्मास्वामी ने सुना है। उन भगवान् ने ऐसा कहा है, इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है। परन्तु इसको आगे के पाठ के साथ संगति नहीं बैठती कि भगवान् ही अपने मुंह से यह कहें कि काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने ऐसा प्रवेदित किया, कहा आदि। अतः जैसे उत्तराध्ययन के १६वें अध्ययन में 'थेरेहिं भगवंतेहि' कह कर स्थविर भगवन्तों को उसका प्ररूपक माना गया, इसी प्रकार यहां प्रथम बार आया हुआ भगवान्' शब्द भगवान् महावीर का द्योतक न होकर शास्त्रकार के किसी प्रज्ञापक आचार्य या स्थविर भगवान् का द्योतक प्रतीत होता है। अर्थात् मैंने उन (अपने प्रज्ञापक आचार्य) भगवान् से ऐसा सुना है। यही आशय संगत बैठता है।
आउसं तेण भगवया : चार रूप, अर्थ और व्याख्या (आउसं तेण)(१)आयुष्मन् ! तेन भगवताहे आयुष्मन् जम्बू! उन प्रज्ञापक आचार्य भगवान् ने। (२) (आउसंतेण भगवया) आयुष्मता भगवताआयुष्मान् (चिरंजीवी) भगवान् ने। (३) आवसंतेण (आवसता मया)= गुरुकुल (गुरुचरणों) में रहते हुए मैंने (सुना) । (४) आमुसंतेण (आमृशता मया) मस्तक से चरणों का स्पर्श (आमर्श) करते हुए (मैंने सुना)।
'आयुष्मन्' सम्बोधन का रहस्य जिसकी अधिक आयु हो उसे आयुष्मन् कहते हैं। 'आउस' या 'आउसो' शब्द द्वारा शिष्य को आमंत्रित (सम्बोधित) करने की पद्धति जैन-बौद्ध आगमों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। यहां शंका उपस्थित होती है कि शिष्य को सम्बोधित करने के लिए यही शब्द क्यों चुना गया? जिनदास महत्तर इसका समाधान इस प्रकार करते हैं देश, कुल, शील आदि से सम्बन्धित समस्त गुणों में विशिष्टतम गुण दीर्घायुष्कता है। जो शिष्य दीर्घायु होता है, वह पहले स्वयं ज्ञान प्राप्त करके बाद में अन्य भव्यजनों को ज्ञान दे सकता है, इस प्रकार शासनपरम्परा अविच्छिन्न चलती है। अतः 'आयुष्मान्' शब्द का विशिष्ट अर्थ है—उत्तम देश, कुल, शील आदि समस्त गुणों से समन्वित प्रधान दीर्घायु गुण वाला। प्रधानगुण (दीर्घायुष्कत्व) निष्पन्न आमंत्रण-वचन
१.
२.
(क) तेन भगवता वर्धमानस्वामिना ।।
—हारि. टीका, पृ. १३६ (ख) ...भावसमण-भावभगवंत महावीरग्गहणनिमित्तं पुणो गहणं कयं । -जिनदास चूर्णि, पृ. १३१ (ग) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. १२० (क) 'आउसंतेण' भगवत एव विशेषणम् । आयुष्मता भगवता चिरजीविनेत्यर्थः । अथवा जीवता साक्षादेव ।
—हारि. टीका, पत्र १३७ (ख) श्रुतं मया गुरुकुलसमीपावस्थितेन तृतीयो विकल्पः ।
-जिन. चू., पृ. १३१ . (ग) सुयं मया एयमज्झयणं आमुसंतेण-भगवतः पादौ आमृशता ।
—वही, पृ. १३१