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दशवकालिकसूत्र रुग्ण या तपस्वी के अतिरिक्त) मुनि का बैठना अनाचार है। अनाचार बताने का कारण यह है कि इससे ब्रह्मचर्य पर विपत्ति आती है, प्राणियों का वध होता है, दीन भिक्षार्थियों को बाधा पहुंचती है, गृहस्थों को क्रोध उत्पन्न होता है और कुशील की वृद्धि होती है।
गात्र-समुद्वर्तन- इसका अर्थ प्रसिद्ध है। दशवैकालिक में ही छठे अध्ययन में कहा गया है "संयमी साधु चूर्ण, कल्क, लोध्र आदि सुगन्धित पदार्थों का अपने शरीर के उबटन (पीठी आदि) के लिए कदापि सेवन नहीं करते, क्योंकि शरीरविभूषा सावद्यबहुल है। इससे गाढ़ कर्मबन्धन होता.है।' '२१
गिहिणो वेयावडियं : दो रूप (१) गृहस्थ-वैयापृत्य (१) गृहस्थ का व्यापार करना, (२) उनके उपकार के लिए उनके कर्म (कृषि व्यापार आदि) को स्वयं करना, (३) असंयम का अनुमोदन करने वाला गृहस्थ का प्रीतिजनक उपकार करना, (४) गृहस्थों के साथ अन्न-पानादि का संविभाग करना, (५) गृहस्थों का आदर करने में प्रवृत्त होना, (२) गृहस्थ-वैयावृत्य—(६) गृहस्थ की शारीरिक सेवा-शुश्रूषा करना, (७) अथवा गृहस्थ को दूसरे के यहां से आहार-पानी, दवा आदि लाकर देना, (८) या गृहस्थ से शारीरिक सेवा लेना।३२
आजीववृत्तिता : स्वरूप, प्रकार एवं व्याख्या-आजीव शब्द का अर्थ है—आजीविका के साधन या उपाय और वृत्तिता का अर्थ है उनके आधार पर वृत्ति (आहारादि भिक्षा) प्राप्त करना आजीववृत्तिता है। स्थानांग तथा दशवैकालिकचूर्णि आदि के अनुसार आजीव के ५ और व्यवहारभाष्य के अनुसार ७ प्रकार हैं। यथा—जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प तथा तप और श्रुत। इन ७ प्रकार के आजीवों में से किसी भी आजीव का आश्रय लेकर आजीविका (भिक्षा या आहारादि) प्राप्त करना आजीववृत्तिता नामक अनाचार है। जाति आदि का कथन दो प्रकार
३०. (क) गहमेव गहान्तरम् (गहस्यान्तर्मध्ये), गहयोर्वा मध्ये .(अपान्तराल) तत्र उपवेशनं । (निषद्यां वा आसनं वा) संयमविराधनाभयात् परिहरेत् ।
-हारि. वृत्ति, पृ. ११७, सृ. १/९/२१, टीका प. १२८ (ख) गोयरग्गगएण भिक्खुणा णो णिसियव्वं कत्थइ-घरे वा देवकुले वा सभाए वा पवाए वा एवमादि ।
-जिन. चूर्णि, पृ. १९५ (ग) साधुर्भिक्षादिनिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन् परो-गृहस्थस्तस्य गृहं-परगृहं, तत्र न निषीदेत् —नोपविशेत् ।
-सूत्र. १/९/२९, टीका, पत्र १८४ (घ) मध्यं (गृहान्तरं) द्विधा-सद्भावमध्यमसद्भावमध्यम् । सद्भावमध्यं नाम -यत्र गृहपतिगृहस्य पार्श्वन गम्यते
आगम्यते वा छिण्डिकया । ३१. (क) दशवै. ६/६४-६७ । (ख) गातं सरीरं तस्स उव्वट्टणं अब्भंगणुव्वलणाईणि ।
-अ. चू., पृ. ६१ ३२. (क) गृहस्थस्य वैयावृत्त्यम् ।
—हारि. वृत्ति, प. ११७ (ख) गिहीणं वेयावडियं जं तेसिं उपकारे वट्टति ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६१ (ग) '...जं गिहीण अण्णपाणादीहिं विसूरंताण विसंविभागकरणं एवं वेयावडियं भण्णइ,...वेयावडियं नाम तथाऽदरकरणं, तेसिं वा पीतिजणणं ।'
—जिनदास चूर्णि, पृ. ११४, ३७३ (घ) '...गृहस्थं प्रति अन्नादिसम्पादनम्' 'गृहिणो-गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिभावोपकाराय तत्कर्मसु आत्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात् ।'
-हारि. वृत्ति, पत्र ११७, २८१ (ङ) 'व्यावृत्तं—परिचारकः, तस्य कर्म वैयावृत्त्यं–परिचर्या ।'