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दशवकालिकसूत्र
उपानत् धारण : चार अर्थ— पादुका, पादरक्षिका, पादत्राण अथवा पैरों के मोजे। निष्कर्ष यह है कि काष्ठ या चमड़े आदि के जूते धारण करना साधु के लिए सर्वथा अनाचरणीय है, जिनदास महत्तर एवं हरिभद्रसूरि के अनुसार शरीर की अस्वस्थ अवस्था में पैरों के या चक्षुओं के दुर्बल होने पर या आपत्काल में जूते (चमड़े या काष्ठ के सिवाय) धारण किये जा सकते हैं।२६
ज्योति-समारम्भ- ज्योति—अग्नि, उसका समारम्भ करना अनाचीर्ण है, क्योंकि अग्नि की उत्तराध्ययनसूत्र में अत्यन्त प्राणिनाशक, सर्वत्र फैलने वाली, अति तीक्ष्ण, प्राणियों के लिए आघातजनक एवं पापकारी शस्त्र कहा गया है। इसलिए अग्नि के आरम्भ को दुर्गतिवर्धक दोष मान कर उसका यावज्जीवन के लिए साधुवर्ग त्याग करे। अग्निसमारम्भ में अग्नि के अन्तर्गत उसके समस्त रूप—अंगार, मुर्मुर, अचिं, ज्वाला, अलात (मशाल), शुद्ध अग्नि और उल्का आदि सभी आ जाते हैं। प्रकारान्तर से अग्नि से आहारादि पकाना-पकवाना, अग्नि जलानाजलवाना, प्रकाश करना, बुझाना आदि भी ज्योति समारम्भ अनाचार के अन्तर्गत हैं, इनसे अग्निकायिक जीवों की हिंसा होती है।
शय्यातरपिण्ड : (सेज्जायरपिंडं) तीन रूप : अर्थ एवं व्याख्या- (१) शय्यातर–श्रमणवर्ग को शय्या देकर भवसमुद्र तरनेवाला, (२)शय्याधर शय्या (वसति) का धारक (मालिक) और (३)शय्याकरशय्या (उपाश्रय, स्थानक आदि) को बनाने वाला। शय्यातर' शब्द वर्तमान में प्रचलित है, उसका पिण्ड-आहार इसलिए वर्जित एवं अनाचीर्ण बताया गया कि उस पर साधु को स्थान प्रदान करने के उपरांत आहारादि देने का भी बोझ न हो जाए तथा उसकी साधुओं के प्रति अश्रद्धा अभक्ति न हो जाए। शय्यातर का आहार लेने से वह भक्तिवश साधु के लिए बनाकर दोषयुक्त आहार भी दे सकता है। अतः यह उद्गमशुद्धि आदि की दृष्टि से भी वर्जनीय है। शय्यातर किसे और कब से माना जाए? इस विषय में निशीथभाष्य में विभिन्न आचार्यों के मतों का संकलन किया गया है, यथा- (१) उपाश्रय, स्थान या मकान का स्वामी या स्वामी की अनुपस्थिति में उसके द्वारा संदिष्ट मकान का संरक्षक। (२) उपाश्रय की आज्ञा देते ही शय्यातर हो जाता है, (३) गृहस्वामी के मकान के अवग्रह में प्रविष्ट होने पर, (४) आंगन में प्रवेश करने पर, (५) प्रायोग्य तृण (घास) ढेला आदि की आज्ञा लेने पर, (६) उपाश्रय (स्थानक) में प्रविष्ट होने पर, (७) पात्रविशेष के लेने तथा कुलस्थापना करने (अपने गच्छ [कुल] के किसी साधु
२६. (क) उपानही काष्ठपादुके
—सूत्र. टीका १-९-१८, पत्र १८१ (ख) "पादरक्षिकाम्"
-भगवती २-१ टीका (ग) उवाहणा पादत्राणम् ।
-अग. चूर्णि, पृ. ६१ (घ) “तथोपानही पादयोरनाचरिते, पादयोरिति साभिप्रायकं, न त्वापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन ।" ।
—हारि. वृत्ति, पत्र ११७ ङ) "...दुब्बलपाओ चक्खुदुब्बलो वा उवाहणाओ आविंधेज्जा ण दोसो भवइ त्ति ।....असमत्थेण पओयणे उप्पण्णे पाएसु कायव्वा, ण उण सेसकालं ।"
-जि. चू., पृ. ११३ २७. (क) 'जोई अग्गी, तस्स जं समारंभणं ।'
-अग. चूर्णि, पृ. ६१ (ख) दशवै. ६-३२-३३ (ग) उत्तरा. ३५-१२ (घ) “पयण-पयावण-जलावण-विद्धंसणेहिं अगणिं...।"
-प्रश्नव्या. आस्रव १-३