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दशवैकालिकसूत्र
बचने की सम्भावना नहीं रहती । दोनों चूर्णियों के अनुसार — राजपिण्ड और किमिच्छक, ये दो अनाचार न होकर, एक अनाचार है। राजा याचक को, वह जो चाहता है, देता है, वहां किमिच्छक — राजपिण्ड नामक अनाचार है। निशीथचूर्णि में बताया है कि सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाहसहित जो राजा राज्यभोग करता है, उसका पिण्ड ग्रहण और उपभोग करने से चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।"
संबाधन : संवाहन : अर्थ और प्रकार- इसका अर्थ हैं— मर्दन। यानी शरीर दाबना या दबवाना। ये दोनों ही रागवर्द्धक हैं। इसके चार प्रकार हैं— अस्थि (हड्डी), मांस, त्वचा और रोम, इन चारों को सुखप्रद या आनन्दप्रद ।१९ सम्पृच्छना : दो रूप : पांच अर्थ - (१) सम्पृच्छा— (क) गृहस्थ से अपने अंगोपांगों को सुन्दरता के बारे में पूछना, (ख) गृहस्थों से सावद्य आरम्भ सम्बन्धी प्रश्न पूछना अथवा गृहस्थों से कुशलक्षेम पूछना, (ग) रोगी से तुम कैसे हो, कैसे नहीं ? इत्यादि कुशल प्रश्न पूछना, (घ) अमुक ने यह कार्य किया या नहीं ? यह दूसरे व्यक्ति (गृहस्थ) से पुछवाना, (२) संप्रोञ्छक या सम्प्रोञ्छणा - (च) शरीर पर गिरी हुई रज को पोंछना या पोंछवाना । इसे सावद्य, असत्य, विभूषा आदि का पोषक होने से अनाचार कहा गया है। २०
देहप्रलोकन : विशेषार्थ दर्पण, पात्र, पानी, तेल, मधु, धृत, मणि, खड्ग एवं राब आदि में अपना चेहरा आदि देखना देह-प्रलोकन है, निशीथ में निर्ग्रन्थ के ऐसा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है । २१
अट्ठावए : दो रूप : तीन अर्थ — (१) अष्टापद – (१) द्यूत अथवा विशेष प्रकार द्यूत - शतरंज । (२) अर्थपद—(क) गृहस्थ के आश्रित अर्थनीति आदि के विषय में बताना अथवा गृहस्थ को सुभिक्ष-दुर्भिक्ष आदि के विषय में भविष्यकथन करना अथवा सूत्रकृतांग के अनुसार — प्राणीहिंसाजनक शास्त्र या कौटिलीय अर्थशास्त्र आदि या द्यूत-क्रीड़ाविशेष का नाम अष्टापद है, उसे सिखाना अनाचार है।
नालिका— द्यूत का ही एक विशेष प्रकार, जिसमें पासों को नालिका द्वारा डालकर जुआ खेला जाता है।२
(क) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ३९
(ख) "मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिंडो । रायपिंडे- किमिच्छए-राया जो जं रायपिंडो किमिच्छतो । तेहिं णियत्तणत्थं —– एसणारक्खणाय एतेसिं अणातिणो ।" (ग) जे भिक्खं रायपिंडे गेण्हति गेण्हतं वा (भुंजति भुजंतं वा ) सातिज्जति । (घ) दशवै. ( मुनि नथमलजी), पृ. १८
१९. संवाहणा नाम चडव्विहा भवति, तं० अट्ठिसुहा मंससुहा तयासुहा रोमसुहा । २०. (क) संपुच्छणा नाम अप्पणी अंगावयवाणि आपुच्छमाणो परं पुच्छइ ।
(ख) अहवा गिहीण सावज्जारम्भा कता पुच्छति । (ग) गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छनं ।
(घ) अण्णे ग्लानं पुच्छति किं ते वट्टति ।
१८.
२१.
२२.
(ङ) संपुच्छण णाम किं तत्कृतं, न कृतं वा पुच्छावेति । (च) संपुंछगो— कहिंचि अंगे रयं पडितं पुंछति लूहेति ।
(क) हारि. वृत्ति, पत्र ११७
(ख) निशीथ, १३/३१ से ३८ गाथा
(क) अष्टापदं द्यूतम्, अर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविषयम् ।
इच्छति तस्स तं देति - एस —अगस्त्यचूर्णि, पृ. ६०
निशीथ ९ / १-२ — जि. चू., पृ. ११३ — जि. चू., पृ. ११३
- अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६०
-सू. १/९/२१ टीका
_—सू. १/९/२१ चूर्णि —सू. १/९/२१ चूर्णि - अ. चू., पृ. ६०
-हा. वृत्ति, पृ. ११७