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तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा
५७ छत्रधारण (निष्प्रयोजन) वर्षा आतप, महिमा, शोभा (बड़प्पन) प्रदर्शन आदि कारणों से छत्र (छाता) धारण करना अनाचार है, किन्तु स्थविरकल्पी साधु के लिए प्रगाढ़ रोग आदि की अवस्था में या स्थविर (वृद्धअशक्त एवं ग्लान) के लिए छत्र-धारण करना अनाचार नहीं, यह अपवाद है।३
चैकित्स्य अर्थात् व्याधि का प्रतिकार । उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण आदि शास्त्रों का मुख्य स्वर निम्रन्थ साधु-साध्वियों के लिए चिकित्सा न करने, कराने तथा चिकित्सा का अभिनन्दन तक न करने का रहा है। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि श्रमणोपासक के लिए बारहवें व्रत में साधु को औषध-भैषज्य से भी प्रतिलाभित करने का विधान है। यदि चिकित्सा करना-कराना अनाचीर्ण है तो यत्र-तत्र निर्ग्रन्थों के औषधोपचार एवं रोगशमन की चर्चा मिलती है, उसके साथ इसकी संगति कैसे होगी ? अतः परम्परागत अर्थ इस प्रकार किया गया कि जिनकल्पी मुनि के लिए तो चिकित्सा कराना निषिद्ध है, किन्तु स्थविरकल्पी के लिए विधिपूर्वक निरवद्य उपचारों से चिकित्सा करना-कराना निषिद्ध नहीं, किन्तु कन्दमूल, फल, फूल, बीज हरित वनस्पति-छाल आदि का उच्छेदन करके उसे पका करके मुनि की सावद्य-चिकित्सा करनी-करानी नहीं चाहिए। इस दृष्टि से सावध चिकित्सा करना-कराना ही अनाचार है।
___ इसके अतिरिक्त शरीर को बलवान् एवं पुष्ट बनाने के लिए घृतपानादि आहारविशेष करना या रसायन आदि सेवन करना भी अनाचीर्ण है। सूत्रकृतांग में इसका सर्वथा निषेध किया गया है। चैकित्स्य का एक अर्थवैद्यकवृत्ति-गृहस्थों की चिकित्सा करना भी है, जो कि अनाचरणीय है।२५
२२. (ख) "अट्ठावयं न सिक्खिज्जा ।"
-सूत्रकृतांग टीका १/९/१७, पत्र.१८९ (ग) निशीथभाष्य गा. ४२८ (घ) हा. टी., पृ. ११७ २३. (क) आतपादिनिवारणाय छत्रं...तदेतत्सर्व कर्मोपादानकारणत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् ।
-सूत्र. १/९/१८ टीका . ' (ख) छत्रस्य लोकप्रसिद्धस्य च धारणमात्मानं परं वा प्रति जनाय इति आगाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वा अनाचरितम्।
-हा. टी., पत्र ११७ (ग) "अकारणे धारिउं न कप्पइ, कारणेण पुण कप्पति ।"
-जि. चूर्णि, पृ. ११३ (घ) “थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा ।"
-व्यवहार ८/५ २४. (क) तेगिच्छं-रोगपडिकम्मं ।
-अगस्त्यसिंह चर्णि, पृ.६१ (ख) चैकित्स्यं-व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम् ।
-हारि. वृत्ति, पत्र ११७ (ग) देखिए उत्तराध्ययनसूत्र में चिकित्सा न करने-कराने का विधान।
-अ. २-३२-३३ अ. १९, गाथा ७५-७६, ७८,७९, उत्तराध्ययन. १५-८ (घ) आचारांग ९-४-१ मूल तथा टीका, पत्र २८४ (ङ) सूत्रकृतांग १-९-१५ टीका
(च) उपासकदशांग १-५ (छ) प्रश्न. सं.५ .
(ज) भगवती शतक १५, पृ. ३९३-३९४ २५. (क) येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशूनः सन् आ–समन्तात् शूनीभवति बलवानुपजायते तदाऽऽशूनीत्युच्यते ।
-सूत्रकृतांग (ख) "मंतं मूलं विविहं वेजचिन्तं....तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ।"
-उत्त. १५-८ (ग) “जे भिक्खू तेगिच्छापिंडं भुंजइ, भुंजंतं वा सातिजति ।"
-निशीथ १३-६९