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तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा
सम्मुख लाई हुई वस्तुएं लेना । इसमें आरम्भदि दोषों की संभावना है।
रात्रिभक्त— (१) पहले दिन, दिन में लाकर दूसरे दिन, दिन में खाना, (२) दिन में लाकर रात्रि में खाना, (३) रात्रि में लाकर दिन में खाना और (४) रात्रि में लाकर रात्रि में खाना। ये चारों ही विकल्प रात्रिभोजन दोष के अन्तर्गत होने से वर्जनीय हैं । १२
स्नान : दो प्रकार - (१) देशस्नान और (२) सर्वस्नान । दोनों ही तरह के स्नान अहिंसा की दृष्टि से वर्जित
हैं।१३
गन्धमाल्य गन्ध—— इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ और माल्य— पुष्पमाला । गन्ध और माल्य दोनों शब्दों का यहां पृथक्-पृथक् प्रयोग है। पृथ्वीकाय, वनस्पतिकाय आदि जीवों की हिंसा, विभूषा और परिग्रह आदि की दृष्टि से वर्जित और अनाचरणीय हैं । १४
बीजन : व्याख्या— व्यजन —— पंखा, ताड़वृन्त, व्यजन- मयूर पंख आदि किसी से भी हवा करना, हवा लेना या ओदनादि को ठंडा करने के लिए हवा करना व्यजन दोष है। ऐसा करने से सचित्त वायुकायिक मर जाते हैं, संपातिम जीवों का हनन होता है । १५
सन्निधि : व्याख्या— सन्निधि का अर्थ है— संचय संग्रह करना । खाद्य वस्तुएं तथा औषधभैषज्य आदि का लेशमात्र या लेपमात्र भी संचय न करें, ऐसी शास्त्राज्ञा है। यहां तक कि भयंकर, दुःसाध्य रोगातंक उपस्थित होने पर भी औषधादि का संग्रह करना वर्जित है, संग्रह करने से गृद्धि या लोभवृत्ति बढ़ती है । १६
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गृहि - अमत्र गृहस्थ के बर्तन में भोजन या पान करना या उसका उपयोग करना अनाचीर्ण इसलिए है कि गृहस्थ बाद में उन बर्तनों को सचित्त पानी से धोए तो उसमें जल का आरम्भ होगा, जल यत्र-तत्र गिरा देने से अयतना होगी, जीवहिंसा होगी। इसलिए गृहस्थों के बर्तन में भोजन - पान करने वाले को आचार भ्रष्ट कहा है। दूसरे, गृहस्थ के बर्तन धातु के होते हैं, खो जाने या चुराये जाने पर उसकी क्षतिपूर्ति करना साधु के लिए कठिन होता है । १७
राजपिण्ड किमिच्छक : दो या एक अनाचारी : व्याख्या- - मूर्धाभिषिक्त राजा के यहां से आहार लेने में अनाचीर्ण इसलिए बताया है कि अनेक राजा अव्रती तथा मांसाहारी होते हैं। उनके यहां भक्ष्याभक्ष्य का विवेक प्रायः नहीं होता। दूसरे, राजपिण्ड अत्यन्त गरिष्ठ होता है, इस दृष्टि से मुनि के रसलोलुप तथा संयमभ्रष्ट होने का खतरा है। 'किमिच्छक' का अर्थ है— जिन दानशालाओं आदि में 'तुम कौन हो ?, क्या चाहते हो ?' इत्यादि पूछ कर आहार दिया जाता है, उसे ग्रहण करना अनाचीर्ण है, क्योंकि एक तो उसमें उद्दिष्ट दोष लगता है, दूसरे भिक्षा के दोषों से
१२. अगस्त्यसिंह चूर्णि, पृ. ६०
१३. जिन. चू., पृ. ११२
१४. जिनदास चूर्णि, पृ. ११२
१५. जिनदास चूर्णि, पृ. ११२
१६.
१७.
(क) सन्निहिं च न कुव्वेजा लेवमायाए (अणुमायं पि) संजए ।
(ख) प्रश्नव्याकरण २/५
(क) 'परमत्ते अन्नपाणं ण भुंजे कयाइ वि ।'
(ख) दशवै. अ. ६ / ५२
— उत्तरा ६/१५, दशवै. ८/२४
- सूत्र. १/९/२०