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दशवैकालिकसूत्र
विवेचन औदेशिक आदि५२ अनाचरित—प्रस्तुत ८ गाथाओं (२ से लेकर ९ गाथा तक) में औद्देशिक' से लेकर 'विभूषण' तक साधु-साध्वियों के लिए अनाचरणीय, अग्राह्य, असेव्य ५२ अनाचीर्णों का उल्लेख किया गया है।
औद्देशिक आदि शब्दों की व्याख्या औद्देशिक-निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी को अथवा परिव्राजक श्रमण, निर्ग्रन्थ, तापस आदि सभी को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, पानी, वस्तु या मकान आदि औद्देशिक कहलाता है। इस प्रकार का उद्दिष्ट भोजनादि निर्ग्रन्थ साधु-साध्वियों के लिए अग्राह्य और असेव्य होता है।
क्रीतकृत : दो अर्थ (१) चूर्णि के अनुसार—जो वस्तु खरीद कर दी जाए, (२) वृत्ति के अनुसार जो वस्तु साधु के लिए खरीदी गई हो, वह क्रीत और जो खरीदी हुई वस्तु से कृत—बनी हुई हो, वह क्रीतकृत। क्रीतकृत दोष साधु के लिए उसमें होने वाली हिंसा की दृष्टि से वर्जनीय है।
नियाग-दोष : कहाँ और कहाँ नहीं?— वैसे तो आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि में नियाग शब्द का प्रयोग मोक्ष, संयम या मोक्षमार्ग अर्थ में हुआ है, परन्तु अनाचार के प्रकरण में नियाग एक प्रकार का आहारग्रहण से सम्बन्धित दोष है, जिसका चूर्णियों और टीका में अर्थ किया गया है—आदरपूर्वक निमंत्रित होकर किसी एक नियत घर से प्रतिबद्ध होकर प्रतिदिन भिक्षा लेना। जैसे किसी भावुक भक्त ने साधु से कहा—'भगवन् ! आप मेरे यहां प्रतिदिन भिक्षा लेने का अनुग्रह करना' इसे स्वीकार कर भिक्षु उस भिक्षा को ग्रहण करता है, वहां नियाग-नित्यपिण्ड दोष है। निमंत्रण में साधु को आहार अवश्य देने की बात होने से स्थापना, आधाकर्म, क्रीत और प्रामित्य (उधार लेना), न्यौता देने वाले गृहस्थ के प्रति रागभाव, न देने वाले के प्रति द्वेषभाव आदि दोषों की सम्भावना होने से नियाग को दोष बताया है। निशीथसूत्र में 'नियाग' के बदले 'नित्यअग्रपिण्ड' (णितिय अग्गपिण्ड) का प्रायश्चित्त बताया है। वहां आमंत्रण और प्रेरणापूर्वक वादा करके जो नित्य अग्र (सर्वप्रथम दिया जाने वाला) पिण्ड लिया जाता है, वह अग्राह्य एवं प्रायश्चित्तयोग्य दोष है, किन्तु सहज भाव से भिक्षा में प्राप्त भोजन नित्य लिया जाए तो नित्यपिण्ड दोष नहीं माना जाता। नियाग का अनाचार प्रकरण में शब्दशः अर्थ होता है—नि+याग, अर्थात् जहां यज—दान निश्चित हो, वहां नियाग दोष है। णियाग (नियाग) का णीयग्ग (नित्याग्र) रूपान्तर भी मिलता है।
अभिहत :विशेष अर्थ- साधु के निमित्त, उसे देने के लिए गृहस्थ द्वारा अपने गांव, घर आदि से उसके
८. (क) "उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं साधुनिमित्तं आरम्भोत्ति वुत्तं भवति।"
-जिन. चू., पृ. १११ (ख) उद्देसियंति उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशस्तत्र भवमौद्देशिकम् । —हारिवृत्ति, पत्र ११६ ९. (क) कीतकडं-जं किणिऊण दिज्जति ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६० __. (ख) क्रयणं क्रीतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः । साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते तेन कृतं क्रीतकृतम् । —हारि. वृत्ति, पत्र ११६ १०. (क) नियागं नाम निययत्ति वुत्तं भवइ, तं तु यदा आयरेण आमंतिओ भवइ ।
-जि.चू., पृ. १११ (ख) नियागं-प्रतिणियतं जं निब्बंधकरणं, ण तु जं अहासमावत्तीए दिणेदिणे भिक्खागहणं । -अ.चू., पृ. ६० (ग) नियाणमित्यामंत्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं, न तु अनामंत्रितस्य ।
-हा.व., प. ११६ (घ) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ६७ ११. (क) "अभिहडं—जं अभिमुहाणीतं उवस्सए आणेऊण दिण्णं ।"
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६० (ख) "स्वग्रामादेः साधुनिमित्तमभिमुखमानीतमभ्याहृतम् ।"
-हारि. वृत्ति, पत्र ११६