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दशवकालिकसूत्र पापभीरु अपनी गिरती हुई आत्मा को पुनः संयमधर्म में सुस्थिर कर लेता है। उसे पाप से वापस मोड़ लेता है। रथनेमि का चित्तरूपी वृक्ष विषयभोग-दावानलजन्य सन्ताप से संतप्त हो गया था, किन्तु तत्काल वैराग्य-रस की वर्षा करने वाले राजीमती के वचन-मेघ से सींचे जाने पर शीघ्र ही संयमरूपी अमृत के रसास्वादन में तत्पर हो गया। अतः अपनी गिरती हुई आत्मा को पुनः स्थिर कर रथनेमि ने जो प्रबल पुरुषार्थ दिखलाया तथा एकान्तस्थान में विषयभोग का प्रबल सान्निध्य रहने पर भी राजीमती की शिक्षा से इन्द्रियनिग्रह करके विषयों को विषतुल्य समझ कर तुरन्त उनको त्याग दिया और वे प्रायश्चित्तपूर्वक अपने श्रमणधर्म में दृढ़ हो गये। उग्र तपश्चरण एवं संयम-पालन किया। इसी कारण उन्हें 'पुरुषोत्तम' कहा गया १२
सर्वोत्तम पुरुष तो वह है, जो चाहे जैसी विकट एवं मोहक परिस्थिति में भी विचलित न हो, किन्तु वह भी पुरुषोत्तम है जो प्रमादवश एक बार डिग जाने पर भी सोच-समझ कर संयमधर्म के नियमों-व्रतों में पुनः सुस्थिर हो जाए। अन्त में वे अनुत्तर सिद्धिगति को प्राप्त हुए।३
सारांश यह है—कदाचित् मोहोदयवश किसी साधक के मन में विषयभोगों का विकल्प पैदा हो जाए तो वह स्वाध्याय, सदुपदेश या ज्ञानबल से या शुभ भावनाओं से रथनेमि के पथ का अनुसरण करे।
॥ द्वितीय : श्रामण्यपूर्वक अध्ययन समाप्त ॥
५२. (क) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. ३६
(ख) आचार्य श्री आत्मारामजी सम्पादित, पृ. ३२-३३ ५३. (क) आचारमणि मं. टीका, भाग १, पृ. १५०
(ख) उत्तराध्ययन, अ. २२/४७-४८