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दशवैकालिकसूत्र
होता है । (४) हड— जलकुंभिका या जिसकी जड़ जमीन से न लगी हुई हो ऐसा तृणविशेष। (५) उदक में उत्पन्न वनस्पति । अथवा (६) साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक हड नामक जीव । ४७
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राजीमती के सुभाषित का परिणाम
[१५] उस संयती (संयमिनी राजीमती) के सुभाषित वचनों को सुन कर वह (रथनेमि ) धर्म में उसी प्रकार स्थिर हो गया जिस प्रकार अंकुश से नाग (हाथी) हो जाता है।
१५. तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाए सुभासियं ।
अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥ १०॥
विवेचन—- राजीमती के सुभाषित वचनों का प्रभाव - प्रस्तुत १०वीं गाथा में राजीमती के पूर्वोक्त प्रेरणादायक सुभाषित वचनों का रथनेमि के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा, उसी का यहां प्रतिपादन है।
सुभासि : सुभाषित: दो विशेषार्थ (१) संवेग — वैराग्य उत्पन्न करने के कारणभूत सुभाषित (अच्छे कहे हुए), संसार भय से उद्विग्न करने वाले सुभाषित।८
संपडिवाइओ : दो रूप— सम्प्रतिपादित—– अर्थात् — सम्यक् रूप से श्रमणधर्म के प्रति गतिशील हो गया। (२) सम्प्रति पातित — सम्यक्रूप से पुनः संयम धर्म में व्यवस्थित (सुस्थिर) हो गया । ४९
जिस प्रकार अंकुश से मदोन्मत्त हाथी का मद उतर जाता है उसी प्रकार राजीमतीरूपी महावत के वचनरूपी अंकुश से रथनेमिरूपी हाथी का विषयवासनारूपी काममद उतर गया और वे जिनोक्त संयमधर्म में सुस्थित अथवा प्रवृत्त हो गए ।
उपदेश की सफलता एक सुसंयमिनी साध्वी के वचनों की सफलता इस बात को सूचित करती है कि स्वयं श्रमणभाव एवं कामनिवारण में दृढ़ चारित्रसम्पन्न आत्मा का प्रभाव अवश्य होता है।
धैर्यशाली हाथी के समान, धैर्यशाली कुलीन साधक — हाथी जिस प्रकार स्वभाव से ही धैर्यवान् होता है, इसलिए इशारे से वश में हो जाता है। कुलीन एवं धैर्यवान् रथनेमि ने भी राजीमती जैसी एक सुसंयमिनी की शिक्षा को शीघ्र और नम्रतापूर्वक स्वीकार कर लिया (°
४७. (क) अबद्धमूलः वनस्पतिविशेष:
४८.
४९.
(ख) दशवै. ( जीवराज छेलाभाई), पत्र ६
(ङ) प्रज्ञापना १ / ४५, १/४३, सूत्रकृ. २/३/५४
(क) “सुभाषितं संवेगनिबन्धनम् ।"
(ख) "संसारभउव्वेगकरेहिं वयणेहिं ।"
(क) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ३०
(ख) दशवै. ( आचारमणिमंजूषा टीका), भा. १, पृ. १४७ ५०. वही ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ३१
(ग) हडो णाम वणस्सइविसेसो, सो दहतलागादिषु छिण्णमूलो भवति ।
(घ) हट: जलकुम्भिका, अभूमिलग्नमूलस्तृणविशेषः ।
— जिन. चूर्णि, पृ. ८९
—सुश्रुत (सूत्रस्थान ) ४४/७ पादटिप्पणी
हारि वृत्ति, पत्र ९७ — जिन. चूर्णि, पृ. ९१