________________
द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक
२७ अभाव में श्रामण्यपालन नहीं हो सकता, और श्रामण्यपालन के अभाव में कामनिवारण नहीं हो सकता। इसलिए शास्त्रकार ने गाथा के प्रारम्भ में ही कहा है—'कहं नु कुज्जा सामण्णं ।'
प्रकारान्तर से श्रामण्यपालन के अभाव में- श्रामण्य का अर्थ श्रमणधर्म करते हैं तो क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दशविध श्रमणधर्मों का समावेश श्रामण्य शब्द में हो जाता है। ऐसी स्थिति में कहं न कुज्जा सामण्णं' का तात्पर्य होगा—जो व्यक्ति कामेच्छा का निवारण नहीं कर सकता, वह दशविध श्रमण-धर्म का पालन कैसे कर सकता है ? कामभोगों की लालसा से मन सुखसुविधाशील और शरीर सुकुमार बन जाएगा तो परीषहों एवं उपसर्गों को सहने, उसमें अपकारियों के प्रति भी क्षमाशील रहने की क्षमता (क्षमा) नहीं रहेगी, मृदुता और सरलता की अपेक्षा कामभोगलालसा के साथ उनकी पूर्ति करने हेतु कठोरता और वक्रता (कुटिलता) आ जाएगी। वह अपने कामलालसाजन्य दोषों को छिपाने का प्रयत्न करेगा। शौच भाव अन्तर्बाह्य पवित्रता भी कामभोगों की लालसा के कारण व्यक्ति सुरक्षित नहीं रख सकेगा। गंदी वासना और मलिन कामना व्यक्ति की पवित्रता को समाप्त कर देगी। सत्याचरण से भी कामभोगपरायण व्यक्ति दूर होता जाता है। संयम का आचरण तो इच्छाओं पर स्वैच्छिक दमन या नियमन मांगता है, वह काम-कामी में कैसे होगा? तपश्चर्या भी इच्छानिरोध से ही सम्भव है, वह काम-कामी व्यक्ति में आनी कठिन है। त्यागभावना से तो वह दूरातिदूर होता जाता है, विषयों की प्राप्ति के तथा अर्थजनित लोभ के वश व्यक्ति अकिंचनता (स्वैच्छिक गरीबी) को नहीं अपना सकता। ऐसा व्यक्ति अधिकाधिक विषयसुखप्राप्ति के लिए अधिकाधिक अर्थ जुटाने में संलग्न रहेगा। कामुक अथवा कामी व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन स्वप्न में भी नहीं करना चाहता। इस प्रकार कामनिवारण के अभाव में श्रामण्य (दशविध श्रमणधर्म) का पालन व्यक्ति के लिए कथमपि संभव नहीं है।
काम : दो रूप : दो प्रकार- नियुक्तिकार के अनुसार काम के दो मुख्य रूप हैं द्रव्यकाम और भावकाम। विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य (इच्छित)—इष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को काम कहते हैं । जो मोहोदय के हेतुभूत द्रव्य हैं, अर्थात् –मोहनीय कर्म के उत्तेजक अथवा उत्पादक (जिनके सेवन से मोह उत्पन्न होता है ऐसे) द्रव्य हैं, वे द्रव्यकाम हैं। तात्पर्य यह कि मनोरम रूप, स्त्रियों के हासविलास या हावभाव कटाक्ष आदि, अंगलावण्य, उत्तम शय्या, आभूषण आदि कामोत्तेजक द्रव्य द्रव्यकाम कहलाते हैं।
भावकाम- दो प्रकार के हैं—इच्छाकाम और मदनकाम।' चित्त की अभिलाषा, आकांक्षारूप काम को
"....दव्वकामा भावकामा य ।"
—नियुक्ति गा. १६१ २. (क) ते इट्ठा सद्दरसरूवगन्धफासा कामिजमाणा विसयपसत्तेहिं कामा भवंति । (ख) शब्दरसरूपगन्धस्पर्शाः मोहोदयाभिभूतेः सत्त्वैः ।
—जिन. चूर्णि, पृ. ७५ काम्यन्ते इति कामाः ।
-हारि. टीका, पृ. ८५ ३. (क) जाणिय मोहोदयकारणाणि वियडमासादीणि दव्वाणि तेहिं अब्भवहरिएहिं सद्दादिणो विसया उद्दिजंति एते
दव्वकामा । —जिन. चूर्णि, पृ. ७५ (ख) मोहोदयकारीणि च यानि द्रव्याणि संथारक विकटमांसादीनि तान्यपि मदनकामाख्य-भावकर्महेतुत्वात् द्रव्यकामा इति।
-हारि. वृत्ति, पत्र ८५ ४. दुविहा य भावकामा इच्छाकामा मयणकामा ।
—नियुक्ति गा. १६२