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द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक
भावना आदि से भोगों को पीठ पीछे करता है, उनकी ओर पीठ कर लेता है, उनसे मुंह मोड़ लेता है या उनका परित्याग करता है। (२) (लब्धान्) अपि पृष्ठीकुर्यात्-भोग उपलब्ध होने पर भी, उनकी ओर पीठ कर लेता है।८
साहीणे चयइ भोए : दो व्याख्या (१) चूर्णि के अनुसार स्वाधीन अर्थात् स्वस्थ और भोगसमर्थ। उन्मत्त, रोगी और प्रोषित आदि पराधीन हैं। अतः अपनी परवशता के कारण व भोगों का सेवन नहीं कर पाते, इसलिए यह उनका त्याग नहीं है। (२) हरिभद्रसूरि के मतानुसार किसी बन्धन में बद्ध होने से नहीं, वियोगी होने से नहीं, परवश होने से नहीं, किन्तु स्वाधीन होते हुए भी उपलब्ध भोगों का त्याग करता है, वह त्यागी है। इसका फलितार्थ यह है कि जिसे विविध प्रकार के भोग प्राप्त हैं, उन्हें भोगने में भी समर्थ (स्वाधीन) है, वह यदि अनेक प्रकार की शुभ भावनाओं, आदि से उनका परित्याग कर देता है तो वह सच्चा त्यागी है।९।।
स्वाधीन भोगों को त्यागने वाले धनी और निर्धन भी- स्वाधीन भोगों को परित्याग करने वालों में वैभवशली भरतचक्री, जम्बूकुमार आदि का उल्लेख किया गया है, ऐसी स्थिति में क्या धनिकावस्था में भोगों के परित्यागी ही त्यागी कहलाएंगे ? निर्धनावस्था में घरबार आदि सब कुछ त्याग कर प्रव्रजित होने वाले तथा अहिंसादि पंच महाव्रतों से युक्त होकर श्रामण्य का सम्यक् परिपालन करने वाले त्यागी नहीं हैं ? आचार्य ने एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सुन्दर समाधान दिया है—एक लकड़हारा सुधर्मास्वामी के पास दीक्षित हुआ। भिक्षा के लिए जब वह नवदीक्षित मुनि घूमता तो लोग ताना मारते कि सुधर्मास्वामी ने भी अच्छा दीन-हीन जंगली मनुष्य मूंडा है। नवदीक्षित ने क्षुब्ध होकर आचार्यश्री से अन्यत्र चलने के लिए कहा। आचार्य सुधर्मास्वामी ने अभयकुमार से यह बात कही तो अभयकुमार के द्वारा कारण पूछे जाने पर नवदीक्षित की सारी बात कह दी। अभयकुमार ने कहा आप विराजें। मैं नागरिकों को युक्ति से समझा दूंगा। आचार्य श्री नवदीक्षित के साथ वहीं विराजे। दूसरे दिन अभयकुमार ने एक सार्वजनिक स्थान पर तीन रत्नकोटि की ढेरी लगवाईं और घोषणा कराई "जो व्यक्ति, सचित्त अग्नि, पानी और स्त्री, इन तीनों को आजीवन छोड़ देगा, उसे अभयकुमार ये तीन रत्नकोटि देंगे।" लोगों ने घोषणा सुनी तो कहा "इन तीनों के बिना, तीन रत्नकोटियों से क्या प्रयोजन ?" अभयकुमार ने यह सुनकर सबको करारा उत्तर दिया "जिस व्यक्ति ने इन तीनों चीजों को जीवन भर के लिए छोड़ दिया है, उसने तीन रत्नकोटि का परित्याग किया है। फिर ऐसा क्यों कहते हो कि दीन-हीन जंगली लकड़हारा प्रवजित हुआ है।" लोगों ने एक स्वर से अभयकुमार की बात स्वीकार की और क्षमा मांग कर चले गए। आचार्य कहते हैं—अग्नि, जल और स्त्री, इन तीन चीजों को जीवनभर के लिए छोड़ कर प्रव्रज्या लेने वाला धनहीन व्यक्ति भी संयम में सुस्थिर होने पर त्यागी
१८: (क) तओ भोगाओ विविहेहिं संपण्णा विपट्ठीओ उ कुव्वइ परिचयइत्ति वुत्तं भवइ, अहवा विप्पट्टि कुव्वंतित्ति दूरओ विवजयंती, अहवा विपट्ठिति, पच्छओ कुव्वइ, ण मग्गओ ।
—जिनदास चूर्णि, पृ. ८३ (ख) विविधं-अनेकैः प्रकारैः शुभभावनादिभिः पृष्ठतः करोति-परित्यजति ।
—हारि. वृत्ति, पृ. ९२ १९. (क) स च न बन्धनबद्धः न प्रोषितो वा, किन्तु स्वाधीनः-अपरायत्तः ।
-हारि. वृत्ति, पृ. ९२ (ख) साहीणो नाम कल्लसरीरो, भोगसमत्थोत्ति वुत्तं भवइ, न उम्मत्तो रोगिओ पवसिओवा ।
—जि. चू., पृ. ८३ २०. हारि. वृत्ति, पृ. ९३