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द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक
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छिंदाहि दो, विणएज्जं रागं : लक्षण और भावार्थ- द्वेष के यहां दो लक्षण अभिप्रेत हैं - ( १ ) संयम के प्रति अरति, घृणा या अरुचि और (२) अनिष्ट विषयों के प्रति घृणा । इसी प्रकार राग के भी यहां दो लक्षण अभिप्रेत हैं— (१) असंयम के प्रति रति और (२) इष्ट विषयों के प्रति प्रीति, आसक्ति, अनुराग अथवा मोह । तात्पर्य यह है कि अनिष्ट विषयों के प्रति द्वेष का छेदन और इष्ट विषयों के प्रति राग का अपनयन करना चाहिए। राग और द्वेष, ये दोनों कर्मबन्धन के बीज मूलकारण हैं। जहां कामराग होगा, वहां अमनोज्ञ (विषयों) के प्रति द्वेष भी होगा । ३२
कामविजय : दुःखविजय का कारण— राग और द्वेष दोनों काम की उत्पत्ति के मूल कारण हैं। जब साधक इष्ट-अनिष्ट या मनोज्ञ-अमनोज्ञ आदि समस्त पर वस्तुओं के प्रति राग-द्वेष को त्याग देता है, तो काम के महासागर को लांघ जाता है— पार कर जाता है और काम के महासागर को पार करना ही वास्तव में दुःखों के (जन्म-मरण के महादुःखस्वरूप संसार के) सागर को पार कर जाना है । इसीलिए कहा गया है— काम - भोगों को अतिक्रान्त कर तो दुःख अवश्य ही अतिक्रान्त होगा । ३
एवं सुही होहिसि संपराए : तात्पर्य और विभिन्न अर्थ — ' एवं ' शब्द यहां पूर्वोक्त तथ्यों का सूचक है। अर्थात्—कामनिवारण के बाह्य कारणों के रूप में बताए हुए आतापनादि तप एवं सुकुमारता-त्याग का और अन्तरंग कारण के रूप में रागद्वेष के त्याग का आसेवन करने से जब साधक काम - महासागर का अतिक्रमण कर लेगा, तब वह संसार में सुखी हो जाएगा। २४' सम्पराए' का रूपानतर होता है— सम्पराये । 'सम्पराय ' शब्द के चार अर्थ होते हैं—संसार, परलोक, उत्तरकालभविष्य और संग्राम । इन चारों अर्थों के अनुसार इस वाक्य का अर्थ और आशय क्रमशः इस प्रकार होगा— (१) 'संसार में सुखी होगा', अर्थात् संसार दुःखों से परिपूर्ण है, परन्तु यदि तू कामनिवारण करके एवं दुःखों पर विजय प्राप्त करके चित्तसमाधि प्राप्त करने के पूर्वोक्त उपाय करता रहेगा तो मुक्ति पाने
पूर्व संसार में भी सुखी रहेगा। (२-३) परलोक में या भविष्य में सुखी होगा, इसका तात्पर्य यह है कि जब तक मुक्ति नहीं मिलती, तब तक प्राणी को विभिन्न गतियों-योनियों में जन्ममरण करना पड़ता है परन्तु हे कामविजयी साधक ! तू इन जन्म-जन्मान्तरों (सम्पराय — परलोक या भविष्य) में देवगति और मनुष्यगति को प्राप्त करता हुआ उनमें सुखी रहेगा। (४) संग्राम में सुखी होगा । अर्थात् — ऐसा (पूर्वोक्त रूप से) भेद चिन्तन करके इष्टानिष्ट में या सुख-दुःख में सम रहने वाला स्थितप्रज्ञ साधक परीषह-उपसर्गरूप संग्राम में सुखी — प्रसन्न रह सकेगा । ३५
३२. ते यकामा सद्दादयो विसया तेसु अणिट्ठेसु दोसो छिंदियव्वो । इट्ठेसु वट्टंतो अस्सो इव अप्पा विणयियो । . — जिन. चूर्णि, पृ. ८६
३३. दशवै. ( मुनि नथमलजी), पृ. ३०
३४.
३५.
(क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २५ (ख) तुलना कीजिए आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः
प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
(क) 'सम्पराओ = संसारो ।'
(ख) सम्पर ईयते इति सम्परायः परलोकस्तत्प्राप्तिप्रयोजनः साधनविशेषः ।
(ग) सम्पराये वि दुक्खबहुले देवमणुस्सेणु सुही भविस्ससि ।
- भगवद्गीता अ. २, श्लोक ७० — अगस्त्य. चूर्णि, पृ. ४५ — कठोपनिषद् शांकरभाष्य १ / २ / ६
-अग. चू., पृ. ४५