________________
द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक
३१
कई साधक बाह्य रूप से काम्य-भोग्य पदार्थों का त्याग कर देते हैं, किन्तु उनको पाने की कामना मन में संजोए रहते हैं। रोगादि कारणों से काम्य पदार्थों का उपभोग नहीं कर सकते, वे व्यक्ति भी श्रमणत्व एवं त्यागंवृत्ति से दूर हैं। यही विश्लेषण अगली दो गाथाओं में देखियेअत्यागी और त्यागी का लक्षण
७. वत्थ-गंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य ।
अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ ॥२॥* ८. जे य कंते पिए भोए, लद्धे विप्पिटुं कुव्वइ ।
साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति वुच्चई ॥३॥ [७] जो (व्यक्ति) परवश (या रोगादिग्रस्त) होने के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्रियों, शय्याओं और आसनादि का उपभोग नहीं करते, (वास्तव में) वे त्यागी नहीं कहलाते ॥२॥
[८] त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त (कमनीय-चित्ताकर्षक) और प्रिय (अभीष्ट) भोग उपलब्ध होने पर भी (उनकी ओर से) पीठ फेर लेता है और स्वाधीन (स्वतन्त्र) रूप से प्राप्त भोगों का (स्वेच्छा से) त्याग करता
विवेचन– बाह्यत्यागी और आदर्शत्यागी का अन्तर—प्रस्तुत दो गाथाओं में बाह्यत्यागी और आदर्शत्यागी का अन्तर स्पष्ट रूप से समझाया गया है।
बाह्यत्यागी आदर्शत्यागी नहीं- प्रश्न होता है, किसी व्यक्ति ने घरबार, कुटुम्ब-परिवार, धन, जन तथा सुन्दर वस्त्राभूषण, शयनासनादि एवं कामिनियों का त्याग कर दिया है, वह अनगार बन चुका है, भिक्षावृत्ति से मर्यादित आहार-पानी, वस्त्रपात्रादि ग्रहण करता है, किन्तु उपर्युक्त साधन स्वाधीन न होने (परवश होने) के कारण न मिलने की स्थिति में उनका उपभोग नहीं कर पाता, अथवा जो पदार्थ पास में नहीं हैं या जिन पर अपना वश नहीं है, अथवा उपर्युक्त पदार्थ मिलने पर भी रोगादि कारणों से उनका उपभोग नहीं कर सकता, क्या वह त्यागी नहीं है? शास्त्रकार कहते हैं उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि त्यागी वह होता है, जो अन्तःकरण से परित्याग करता है। जो काम्य वस्तुओं का केवल अपनी परवशता (अस्वस्थता आदि) के कारण सेवन नहीं करता, उसे त्यागी कैसे कहा जाएगा? क्योंकि वह चाहे काम्य पदार्थों का उपभोग न करता हो, किन्तु उसके मन में काम्य-भोग्य पदार्थों का उपभोग करने की लालसा तो विद्यमान है। तात्पर्य यह है कि ऐसे बाह्यत्यागी द्रव्यलिंगी के अन्तर में इच्छा रूप भूख जगी हुई है। वह मन ही मन सोचता है कि "मुझे भी सुन्दर वस्त्राभूषण मिलें तो मैं भी पहनूं, मैं भी सुगन्धित पदार्थों का उपभोग करूं, मैं भी सुखशय्याओं पर शयन करूं या नाना देश की सुन्दरियों के साथ विहरण करूं, नाना प्रकार के सुन्दर गुदगुदे आसन मुझे भी मिलें तो उनका उपभोग करूं।" ऐसी स्थिति में पदार्थों का त्याग कर देने से वे पदार्थ तो उसे मिलेंगे नहीं, किन्तु उनकी लालसा बनी रहेगी और जब-तब उनके निमित्त से संकल्प-विकल्प,
इसके आशय की तुलना कीजिएकर्मेन्द्रियाणि संयम्य, य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
-गीता अ.३, श्लोक ६