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द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक
को पाने का अध्यवसाय करता है, उन्हीं के चिन्तन में डूबता - उतराता रहता है, तब कहा जाता है कि वह कामसंकल्पों के वशीभूत (अधीन) हो गया। उसका परिणाम यह आता है— जब काम - संकल्प पूरे नहीं होते या संकल्पपूर्ति में कोई रुकावट आती है या कोई विरोध करने लगता है अथवा इन्द्रियक्षीणता आदि विवशताओं के कारण काम का या काम्यपदार्थों का उपभोग नहीं कर पाता, तब वह क्रोध करता है, मन में संक्लेश करता है, झुंझलाता है, शोक और खेद करता है, विलाप करता है, दूसरों को मारने-पीटने या नष्ट करने पर उतारू हो जाता है। इस प्रकार की आर्त - रौद्रध्यान की स्थिति में वह पद-पद पर विषादमग्न हो जाता है । पद-पद पर विषाद ही संकल्प-विकल्पों का परिणाम है।
भगवद्गीता में भी काम के संकल्प से अधःपतन एवं सर्वनाश का क्रम दिया है— कहा है" जो व्यक्ति मन से विषयों का स्मरण - चिन्तन करता है, उसकी आसक्ति उन विषयों में हो जाती है। आसक्ति से उन विषयों को पाने की कामना (काम) पैदा होती है । काम्यपूर्ति में विघ्न पड़ने से क्रोध आता है। क्रोध से अविवेक अर्थात्———मूढभाव उत्पन्न होता है । सम्मोह (मूढभाव) से स्मृति भ्रान्त हो जाती है। स्मृति के भ्रमित-भ्रष्ट हो जाने से बुद्धि (ज्ञान — विवेक की शक्ति) नष्ट हो जाती है और बुद्धिनाश से मनुष्य का सर्वनाश यानी श्रेयःसाधन ( या श्रमणभाव) से सर्वथा अध: पतन हो जाता है। "
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विषादग्रस्तता : स्वरूप, लक्षण और कारण संयम और धर्म के प्रति अरति, अरुचि या खिन्नता की भावना उत्पन्न होना विषाद है।
जब साधक पर क्षुधा, तृषा, सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर, वस्त्र की कमी, अलाभ (आहारादि की अप्राप्ति), शय्या या वसति (आवासस्थान) अच्छी न मिलना, इत्यादि परीषह, उपसर्ग, कष्ट, या वेदना के समय मन में संयम के प्रति अरुचि या खिन्नता उत्पन्न होती है, तब "इससे बेहतर है, पुनः गृहस्थवास में चले जाना," इस प्रकार सोचता है, एकान्त में या समूह में स्त्रियों का रूप लावण्य अथवा अनुराग देखकर मन में त्याग का अनुताप होता है, उग्रविहार, पैदल भ्रमण, भिक्षाचर्या, एक स्थान में बैठना (निषद्या) अथवा निवास करना, आक्रोश (किसी के द्वारा कठोर वचन कहे जाने ), वध (मार - पीट), रोग, घास या तृण का कठोर स्पर्श, शरीर पर मैल जम जाना, एकान्तवास का भय, दूसरों का सत्कार - पुरस्कार होते देख स्वयं में सत्कार - पुरस्कार की लालसा, प्रज्ञा और ज्ञान न होने की स्थिति से उत्पन्न हीनभावना, ग्लानि, दृष्टि सम्यक् या स्पष्ट न होने से विषयों में रमण या सुखसुविधा, आरामतलबी को अच्छा समझना, आदि परीषहों के उपस्थित होने पर साधक विचलित हो जाता है, मन में आचारभ्रष्ट होने के उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, अपने प्रति, समाज, संघ, गुरु आदि निमित्तों के प्रति रोष, झुंझलाहट, अभक्ति-अश्रद्धा उत्पन्न होती है, क्रोधादि कषायों में उग्रता आ जाती है, भोगी लोगों की देखा-देखी या ईर्ष्यावश मन
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दशवै. (आचार्य श्री आत्माराम जी म.), पृ. २० ध्यायतो विषयान् पुंसः, संगस्तेषूपजायते । संगात् संजायते कामः, कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ क्रोधाद् भवति सम्मोहः, सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥
— भगवद्गीता अ. २, श्लोक ६२-६३