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दशवैकालिकसूत्र आर्त्त-रौद्र ध्यान होते रहेंगे। शास्त्रकार ने ऐसे व्यक्ति को आदर्शत्यागी न मानने का प्रबल कारण बताया है 'अच्छंदा'। इसके मुख्य अर्थ दो हैं—(१) जो साधु स्वाधीन न होने से परवश होने से विषय-भोगों को नहीं भोगता, (२) जो पदार्थ पास में नहीं हैं, अथवा जिन पदार्थों पर वश नहीं है। इस विषय में चूर्णि एवं टीका में एक उदाहरण दिया गया है—चन्द्रगुप्त के अमात्य चाणक्य के प्रति द्वेषशील तथा नन्द के अमात्य सुबन्धुको मृत्यु के भय से अकाम रहने पर भी साधु नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार विवशता के कारण विषयभोगों को न भोगने से कोई सच्चा त्यागी नहीं कहला सकता।५ । ___कान्त एवं प्रिय में अन्तर— स्थूल दृष्टि से देखने पर कान्त और प्रिय दोनों शब्द एकार्थक प्रतीत होते हैं, परन्तु दोनों के अर्थ में अन्तर है। अगस्त्य-चूर्णि के अनुसार 'कान्त' का अर्थ सहज सुन्दर और प्रिय का अर्थ अभिप्रायकृत सुन्दर होता है। जिनदास महत्तर-चूर्णि में कान्त' का अर्थ रमणीय और 'प्रिय' का अर्थ इष्ट किया गया है। इस विषय में यहां चतुर्भंगी बन सकती है—(१) एक वस्तु कान्त होती है, पर प्रिय नहीं, (२) एक वस्तु प्रिय होती है, कान्त नहीं, (३) एक वस्तु कान्त भी होती है, प्रिय भी और (४) एक वस्तु न प्रिय होती है न कान्त। तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति को कान्तवस्तु में कान्तबुद्धि उत्पन्न होती है, जबकि किसी व्यक्ति को अकान्तवस्तु में भी कान्तबुद्धि उत्पन्न होती है। एक वस्तु, एक व्यक्ति के लिए कान्त होती है, वही वस्तु दूसरे के लिए अकान्त होती है। जैसे—नीम मनुष्य के लिए कड़वा होने से कान्त नहीं होता, किन्तु अमुक रोगी अथवा ऊंट के लिए कान्त होता है। क्रोध, असहिष्णुता, अकृतज्ञता एवं मिथ्याभिनिवेश आदि कारणों से व्यक्ति को गुणसम्पन्न वस्तु भी अगुणयुक्त लगती है। अविद्यमान दोषदर्शन के कारण कान्त में भी अकान्तबुद्धि हो जाती है। एक माता को अपना पुत्र कालाकलूटा और बेडौल (अकान्त) होने पर भी मोहवश कान्त लगता है, इसी प्रकार एक सुन्दर सुरूप सुडौल व्यक्ति कान्त होने पर भी कलहकारी और क्रूर होने के कारण अप्रिय लगता है। अतः जो कान्त हो, वह प्रिय हो ही, ऐसा कोई नियम नहीं है। यही दोनों विशेषणों में अन्तर है।
___ भोए : व्यापक अर्थ— इन्द्रियों के विषय स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का आसेवन भोग कहलाता है। काम, भोग का पूर्ववर्ती है। पहले काम (विषय की कामना) होती है और फिर भोग होता है। इस कारण काम और भोग दोनों शब्द एकार्थक-से बने हुए हैं। भगवतीसूत्र आदि आगमों में काम और भोग का सूक्ष्म अन्तर बताया है। वहां रूप और शब्द को 'काम' तथा स्पर्श, रस और गन्ध को 'भोग' कहा गया है। यहां व्यावहारिक स्थूल दृष्टि से सभी विषयों के आसेवन को भोग' कह दिया गया है।
विपिट्ठिकुव्वइ : दो रूप : अनेक अर्थ– (१) विपृष्ठीकरोति. विविध अनेक प्रकार की शुभ
१४. हारि. वृत्ति, पत्र ९१ १५. एते वस्त्रादयः परिभोगाः केचिच्छन्दा न भुंजते, नाऽसौ परित्यागः । १६. (क) कंत इति सामन्नं...प्रिय इति अभिप्रायकंतं ।
(ख) कमनीयाः कान्ताः शोभना इत्यर्थः, प्रिया नाम इट्ठा ।
(ग) स्थानांग, स्था. ४/६२१ १७. (क) भोगा-सद्दादयो विसया ।
(ख) भगवती ७/७ (ग) नंदी. २७, गा. ७७
—जिनदास चूर्णि, पृ. ८१
-अ. चूर्णि, पृ. ४३ -जिनदास चूर्णि, पृ. ८२
-जिनदास चूर्णि, पृ. ८२