________________
३०
दशवकालिकसूत्र में इन्द्रियविषयों के प्रति गाढ़ अनुराग पैदा हो जाता है, ये सब विषादग्रस्तता के लक्षण हैं ।*
विषादग्रस्तता के उद्गमस्थल— स्पर्शन आदि इन्द्रियों के विषय (अर्थात्-इन्द्रिय विषयों के देखन, सुनने, सूंघने, चखने एवं छूने) से, क्रोध आदि कषायों के निमित्त से, क्षुधा आदि परीषहों से, वेदना (बैचेनी या असुखानुभूति) से तथा देव-मनुष्य-तिर्यञ्चकृत उपसर्ग से विषादग्रस्तता के अपराध का उद्गम होता है। अर्थात् ये अपराध-पद हैं—विषाद-उत्पन्न होने के। ये ऐसे विकारस्थल हैं, जहां कच्चे साधक के पद-पद पर स्खलित एवं विचलित होने की सम्भावना है।
विषादग्रस्तता का उदाहरण— कामसंकल्पों के वशीभूत होने वाला व्यक्ति किस प्रकार बात-बात में सुखसुविधावादी, सुकुमार, कायर एवं शिथिल होकर विषादग्रस्त हो जाता है ? इसे समझाने के लिए वृत्तिकार एक उदाहरण देते हैं—कोंकण देश में एक वृद्ध पुरुष अपने पुत्र के साथ प्रव्रजित हुआ। युवक शिष्य अभी कामभोगों के रस से बिलकुल विरक्त नहीं हुआ था, किन्तु वृद्ध को वह अत्यन्त प्रिय था। एक दिन शिष्य कहने लगा "गुरुजी! जूतों के बिना मुझ से नहीं चला जाता, पैर छिल जाते हैं।" अनुकम्पावश वृद्ध पुरुष ने उसे जूते पहनने की छूट दे दी। फिर एक दिन कहने लगा "ठंड से पैर के तलवे फट जाते हैं।"वृद्ध ने मोजे पहनने की छूट दे दी। एक दिन बोला—"धूप में मेरा मस्तक अत्यन्त तप जाता है।" वृद्ध गुरु ने उसे वस्त्र से सिर ढंकने की आज्ञा दे दी। इस पर भी एक दिन शिष्य बोला—"गुरुजी ! अब तो मेरे लिए भिक्षा के अर्थ घूमना कठिन है।" वृद्ध गुरु शिष्यमोहवश उसे वहीं भोजन लाकर देने लगे। एक दिन शिष्य बोला—"गुरुजी ! अब मुझसे भूमि पर शयन नहीं किया जाता।" गुरु ने उसे बिछौने पर सोने की आज्ञा दे दी। एक दिन लोच करने में असमर्थता प्रकट की तो गुरु ने क्षुरमुण्डन करने की छूट दे दी। एक दिन बोला—बिना नहाए रहा नहीं जाता तो गुरु ने प्रासुक पानी से स्नान करने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार ज्यों-ज्यों शिष्य मांग करता गया, वृद्ध उसे मोहवश छूट देता गया। एक दिन शिष्य बोला—"गुरुजी ! अब मुझ से बिना स्त्री के रहा नहीं जाता।" गुरु ने उसे दुर्वृत्तिशील एवं अयोग्य जान कर अपने आश्रय से दूर कर दिया। इस प्रकार जो साधक इच्छाओं और कामनाओं के वशीभूत होकर उनके पीछे दौड़ता है, वह पद-पद पर अपने श्रमणभाव से शिथिल, भ्रष्ट और विचलित होकर शीघ्र ही अपना सर्वनाश कर लेता है।१२
फलितार्थ- प्रस्तुत गाथा का फलितार्थ यह है कि जो साधक श्रामण्य (श्रमणभाव, प्रशमभाव या समभाव) का पालन करना चाहता है, उसे समग्र कामभोगों की वाञ्छा, लालंसा एवं स्पृहा का त्याग करना आवश्यक है। गीता की भाषा में देखिए-"जो पुरुष समस्त काम-भोगों का त्याग करके निःस्पृह, निरहंकार और ममत्वरहित होकर विचरण करता है, वही शान्ति प्राप्त करता है।"१३
नियुक्ति, गा. १७५
* दशवै. (मुनि नथमलजी) के आधार पर, पृ. २३ ११. इंदियविसय-कसाया परीसहा वेयणा य उवसग्गा ।
एए अवराहपया जत्थ विसीयंति दुम्मेहा ॥ १२. हारि. वृत्ति, पृ.७९ १३. विहाय कामान् यः सर्वान्, पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
-गीता अ. २, श्लोक ७१