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၃ ခု
दशवैकालिकसूत्र
निर्ग्रन्थ श्रमण भी भिक्षाचर्या करते हैं, परन्तु इन दोनों की वृत्ति एवं कोटि में अन्तर है। भिक्षुक दीनता की भाषा में, याचना करके या गृहस्थ के मन में दया पैदा करके भीख मांगता है और निर्ग्रन्थ : श्रमण न तो दीनता प्रदर्शित करता है और न ही याचना करता है, उसकी इस प्रकार की मांग या बाध्य करके किसी से भिक्षा लेने की वृत्ति नहीं होती, न ही वह जाति, कुल आदि बता कर या प्रकारान्तर से दया उत्पन्न करके भिक्षा लेता है। उसकी भिक्षा अमीरी भिक्षा है। उसकी त्यागवृत्ति से स्वयं आकर्षित होकर गृहस्थ अपने लिए बने हुए आहार में से उसे देता है। इसीलिए आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रमण निर्ग्रन्थों की भिक्षा को सर्वसंपत्करी कहा है। दीन, हीन, अनाथ और अपाहिजों को दी जाने वाली भिक्षा (भीख) 'दीनवृत्ति' कहलाती है और पांच आस्रवों का सेवन करने वाले, पंचेन्द्रियविषयासक्त, प्रमाद में निरन्तर रत, सन्तानों को उत्पन्न करने और पालने-पोसने में व्यस्त, भोगपरायण, आलसी एवं निकम्मे लोगों को दी जाने वाली भिक्षा 'पौरुषघ्नी' कहलाती है। क्योंकि इससे उनमें पुरुषार्थहीनता आती है।६२ श्रमणधर्म-पालक भिक्षाजीवी साधुओं के गुण
५. महुकारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥
त्तिबेमि ॥ ॥ पढमं दुमपुष्फियऽज्झयणं समत्तं ॥१॥ [५] जो बुद्ध (तत्त्वज्ञ) पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित हैं, नाना पिण्डों में रत हैं और दान्त हैं, वे अपने इन्हीं गुणों के कारण साधु कहलाते हैं।
-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन– साधुता के गुणों की पहिचान प्रस्तुत ५वीं गाथा में साधुता की वास्तविक पहिचान के लिए मुख्य चार गुणों का प्रतिपादन किया गया है—(१) बुद्ध, (२) मधुकरवत् अनिश्रित, (३) नानापिण्डरत और (४) दान्त।
चारों गुणों की व्याख्या-(१) बुद्धा प्रबुद्ध, जागृत, तत्त्वज्ञ अथवा कर्त्तव्य-अकर्तव्य-विवेकी।६३ (२) महुकारसमा अणिस्सिया : मधुकरसम अनिश्रित : चार अर्थ (१) जैसे मधुकर किसी फूल पर आश्रित नहीं होता, वह विभिन्न पुष्पों से रस लेता रहता है, कभी किसी पुष्प पर जाता है, कभी किसी पुष्प पर। इसी प्रकार श्रमण भी किसी एक घर या ग्राम के आश्रित न हो। (ख) जैसे मधुकर की वृत्ति अनियत होती है, वह किस पुष्प पर रस लेने जाएगा, यह पहले से कुछ भी नियत या निश्चित नहीं होता, इसी प्रकार भिक्षाजीवी साधु भी पहले से किसी घर का कुछ भी निश्चित करके नहीं जाता, अनायास ही अनियत वृत्ति से कहीं भी भिक्षा के लिए पहुंच जाता
-उत्तरा.
६१. 'अदीणे वित्तिमेसिज्जा' ६२. (क) हरिभद्रीय अष्टक
(ख) दशवै. (आचारमणिमूंषा टीका) भा. १, पृ. ९५-९६ ६३. (क) दशवै. (संतबालजी), पृ.६ (ख) दशवै. (आ. आत्मा.), पृ. १६
(ग) दश. (आचार म.मं.) भा. १, पृ. १०३