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आए। यह इन पदों का रहस्यार्थ है /१६
'समणा' के तीन विशेषण क्यों ? – प्रस्तुत गाथा में 'समणा' पद दे देने से ही काम चल सकता था, फिर यहां समणा, मुत्ता, संति-साहुणो इन तीन विशेषणों के देने का क्या अभिप्राय है ? आचार्य हरिभद्र इसका समंधान करते हुए कहते हैं—लोक में ५ प्रकार के श्रमण प्रसिद्ध हैं – (१) निर्ग्रन्थ, (२) शाक्य, (३) तापस, (४) गैरिक और (५) आजीवक। यहां शेष चार प्रकार के श्रमणों का निराकरण करके केवल निर्ग्रन्थ एवं मोक्षसाधक या पंचमहाव्रतपालक श्रमण विशेष की भिक्षावृत्ति बताने के लिए उपर्युक्त तीन विशेषण दिए गए हैं।
भिक्षाजीवी निर्ग्रन्थ श्रमण की भिक्षावृत्ति और मधुकरवृत्ति में अन्तर — प्रश्न होता है, निर्ग्रन्थ श्रमण सर्वथा अपरिग्रही, कंचन - कामिनी का त्यागी होता है, इसी प्रकार भ्रमर भी बाहर से अपने पास कुछ भी नहीं रखता, ऐसी स्थिति में जैसे भ्रमर सीधा ही फूलों के पास पहुंच कर वे (फूल) चाहें या न चाहें, उनका रस चूस लेता है, क्या इसी तरह निर्ग्रन्थ साधु भी अन्य तीर्थी तापसों की तरह वृक्षों के फल, कन्द-मूल आदि तोड़ कर ग्रहण एवं सेवन करे ?
दशवैकालिकसूत्र
शास्त्रकार कहते हैं— निग्रन्थ श्रमण कदापि ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करने से उसके दो महाव्रत भंग होते हैं वृक्ष, फल, मूल आदि सजीव होते हैं, उन्हें तोड़ने और खाने से उनकी हिंसा होती है, अतः साधु का प्रथम अहिंसा महाव्रत भंग होता है। दूसरे, वृक्षों के फल आदि को किसी के बिना दिये ग्रहण करने में तीसरा अदत्तादानविरमण (अचौर्य) महाव्रत भंग होता है। ऐसी स्थिति में क्या श्रमण गृहस्थों से आटा, दाल आदि मांग कर लाए और स्वयं आहार पकाए या पकवाए ? इसका समाधान यह है कि अहिंसा महाव्रती श्रमण ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि पचन - पाचन आदि क्रियाओं— आरम्भों में सचित्त अग्नि और जल के जीवों का हनन होगा। इसी प्रकार वह आहार - सामग्री खरीद कर या खरीदवा कर भी नहीं ले सकता, क्योंकि अपरिग्रही और अहिंसक, साधु के लिए यह वर्जित है । तब फिर वह अपनी उदरपूर्ति कैसे करे ? इस प्रश्न का समाधान तृतीय गाथा के अन्तिम चरण में किया गया है— दाण-भत्तेसणे रया । ये शब्द निर्ग्रन्थ श्रमण की भिक्षावृत्ति के मूलमंत्र हैं और ये ही मधुकरवृत्ति से भिक्षावृत्ति की विशेषता को द्योतित करते हैं। इनका अर्थ है — भिक्षु गृहस्थों द्वारा प्रदत्त, (प्रासुक) भक्त (भोजन) की एषणा में तत्पर रहें। इसका फलितार्थ यह है कि निर्ग्रन्थ भिक्षु अदात्तादान (चोरी) से बचने के लिए दाता द्वारा स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक दिया हुआ आहार आदि ग्रहण करे। बिना दिया हुआ न ले। अर्थात् दाता के घर में स्वप्रयोजन लिए बनाया हुआ, वह भी प्रासुक (अचित्त) हो, भिक्षा ग्रहण के किसी नियम के विरुद्ध न हो, ग्रहणयोग्य निर्दोष आहार-पानी हो तो ग्रहण करे ।" इस प्रकार की गवेषणा और ग्रहणैषणापूर्वक भिक्षा ग्रहण करने
५६. दशवै. ( आचारमणिमंजूषा टीका), भा. १, पृ. ९४ ५७. (क) दशवै. ( आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. ९४
(ख) 'निग्गंथ - सक्क-तावस गेरुय-आजीव पंचहा समणा ।'
५८.
- हारि. वृत्ति, पत्र ६८
— नियुक्ति गा. १२३
(क) दाणेत्ति दत्तगिण्हण भत्ते भज सेव फासुगेण्हणया ।
एसणतिगंमि निरया उवसंहारस्स सुद्धि इमा ॥
(ख) 'दानग्रहणाद् दत्तं गृह्णन्ति, नादत्तम्, भक्तग्रहणेन तदपि भक्तं प्रासुकं, न पुनराधाकर्मादि ।'
— हारि. वृत्ति, पत्र ६३