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प्रथम अध्ययन : द्रुमपुष्पिका
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[३] उसी प्रकार लोक में जो (बाह्य-आभ्यन्तर-परिग्रह से या राग-द्वेष के ग्रन्थि-बन्धन से) मुक्त, श्रमण साधु हैं, वे दान-भक्त (दाता द्वारा दिये जाने वाले निर्दोष आहार) की एषणा (भिक्षा) में रत रहते हैं, जैसे भौरे फूलों में ॥३॥
[४] हम इस ढंग से वृत्ति (=भिक्षा) प्राप्त करेंगे, (जिससे) किसी जीव का उपहनन (उपमर्दन) न हो, (क्योंकि) जिस प्रकार भ्रमर अनायास (अकस्मात्) प्राप्त, फूलों पर चले जाते हैं, (उसी प्रकार) श्रमण भी यथाकृत-गृहस्थों के द्वारा अपने लिए सहजभाव से बनाए हुए, आहार के लिए, उन घरों में भिक्षा के लिए जाते हैं ॥४॥
विवेचन– भ्रमरवृत्ति और साधु की भिक्षावृत्ति—प्रस्तुत तीन गाथाओं (२ से ४ तक) में भ्रमरवृत्ति से साधु की भिक्षावृत्ति की तुलना की गई है।
अहिंसा, श्रमणधर्म और जीवननिर्वाह- प्रश्न होता है कि श्रमणधर्म या चारित्रधर्म का पालन या आचरण शरीर से होता है और शरीर के निर्वाह के लिए आहार की आवश्यकता रहती है, आहार पृथ्वीकायादि षड्जीवनिकाय के आरम्भ के बिना निष्पन्न नहीं हो सकता। अगर साधु आरम्भ में पड़ता है तो श्रमणधर्म का पालन नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में साधु अपने अहिंसाधर्म पर कैसे स्थिर रह सकता है ? ___ इस समस्या के समाधन के हेतु इन गाथाओं में भ्रमर का दृष्टान्त देकर साधुओं के लिए निर्दोष भिक्षावृत्ति द्वारा आहार ग्रहण करने और जीवन-निर्वाह करने की विधि बताई गई है। इस प्रकार की एषणापूर्वक निर्दोष भिक्षाचर्या से साधु के श्रमणधर्म (चारित्र) पालन में कोई आंच नहीं आ सकती।५
भ्रमरवृत्ति— प्रस्तुत द्वितीय गाथा में भ्रमर की स्वाभाविक वृत्ति का उल्लेख किया गया है। भौंरा अपने जीवन-निर्वाह के लिए मंडराता हुआ किसी वृक्ष या लता, पौधे. आदि के फूलों पर जाकर बैठता है और उनका समूचा रस नहीं, किन्तु थोड़ा-थोड़ा रस मर्यादा-पूर्वक पीता है। ऐसा करके वह उन फूलों को हानि नहीं पहुंचाता और वह स्वयं की तृप्ति कर लेता है। इसीलिए इस गाथा में 'दुमस्स पुप्फेसु' में बहुवचनात्मक पद और 'ण य पुष्पं किलामेइ' में एकवचनात्मक पद ग्रहण किया गया है। 'दुमेसु' इस बहुवचनात्मक पद से प्रकट किया गया है कि भौंरा एक फूल पर ही नहीं, अनेक फूलों पर जा कर रस चूसने के लिए बैठता है। इसी प्रकार साधु भी एक ही घर से नहीं, अनेक घरों से आहार ग्रहण करे। तथा 'पुष्कं' इस एकवचनात्मक पद से यह आशय निकलता है कि वह किसी एक घर को भी हानि नहीं पहुंचाता।"
भिक्षाचरी की प्रक्रिया द्वारा अहिंसा, संयम और तप इन तीनों से युक्त श्रमणधर्म का भलीभांति पालन कर लेता है। साधु की निर्दोष भिक्षावृत्ति में इन तीनों धर्मांगों का भलीभांति पालन हो जाता है, क्योंकि अपने निमित्त से किसी भी जीव को पीड़ा न पहुंचाना अहिंसा है। भिक्षाचर्या में साधु अपने लिए स्वयं आहार बना या बनवा कर
४५. (क) दशवै. (आचारमणि-मंजूषा टीका) भा. १, पृ. ८५
(ख) दशवै. (आ. श्री आत्मारामजी म.), पृ.८ ४६.. दशवै. (आचारमणि-मंजूषा टीका) भा. १, पृ. ८६ ४७. दशवै. (आचारमणि-मंजूषा टीका) भा. १, पृ. ८६-८७