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दशवैकालिकसूत्र
प्रस्तुत में चारित्रधर्म ही उत्कृष्टमंगलरूप से अभीष्ट— यद्यपि पहले बताए हुए अन्य लोकोत्तर धर्म भी मंगलरूप ही हैं, परन्तु यहां उत्कृष्ट मंगलरूप भावधर्म और उसमें भी विशेषतः सर्वविरति रूप चारित्रधर्म रूप ही अभीष्ट है।
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कहा जा सकता है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों अथवा श्रुतधर्म और चारित्रधर्म ये दोनों मिल कर मोक्षप्राप्ति के कारण होने से उत्कृष्टमंगल रूप हैं, फिर चारित्रधर्म या सम्यक्चारित्र को ही यहां उत्कृष्ट मंगल के रूप में ग्रहण क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि संवर और निर्जरा रूप चारित्रधर्म कर्मों का सर्वथा क्षय (मोक्ष प्राप्त) करने के लिए अनिवार्य है और जब सम्यक्चारित्र आएगा, तो उससे पूर्व सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का आना अनिवार्य है । इसीलिए यहां चारित्रधर्म को ही उत्कृष्ट मंगल के रूप में ग्रहण किया गया है । १
अहिंसा-संयम-तप रूप चारित्रधर्मः उत्कृष्टमंगलरूप — चारित्रधर्म का लक्षण आचार्य जिनदास महत्तर तथा अन्य आचार्यों ने कहा है—असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति । १२ इसी कारण यहां अहिंसा, संयम और तप इन तीनों को चारित्रधर्म में निर्दिष्ट किया गया है। यों तो चारित्र में पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति आदि माने जाते हैं। परन्तु इन सबका समावेश अहिंसा और संयम में हो जाता है। आचार्य जिनदास महत्तर कहते हैं कि अहिंसा के ग्रहण से पांचों महाव्रत गृहीत हो जाते हैं। संयम और तप भी अहिंसाभगवती के दो चरण हैं ।१३ अहिंसा भगवती की सम्यक् उपासना भी तभी हो सकती है, जब नवीन कर्मों के आगमन (आश्रव) का निरोध ( संवर) और कर्मों की निर्जरा (तपस्या) की जाए। यही कारण है कि यहां अहिंसा के साथ, उसके पालन में सहायक संयम और तप को उत्कृष्टमंगलमय माना गया है।१४
मंगल : स्वरूप, प्रकार और उत्कृष्टमंगल- 'मंगल' शब्द भारतीय संस्कृति में इतना अधिक प्रचलित है कि आस्तिक और नास्तिक प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य को निर्विघ्नरूप से पूर्ण करने, सफल करने तथा यशस्वी बनाने हेतु उसके प्रारम्भ में मंगल करता है । इस दृष्टि से मंगल का निर्वचन कई प्रकार से किया गया है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने मंगल का निर्वचन किया है—–— जिससे हित होता हो, कल्याण सिद्ध होता हो, वह मंगल है। एक आचार्य ने मंगल का अर्थ किया है— जो मंग अर्थात् सुख को लाता है वह मंगल है।" संसार में निर्विघ्न कार्यसिद्धि, अपने हित (स्वार्थ) के लिए एवं सुख के लिए सामान्य जनता में पूर्ण कलश, स्वस्तिक, दही, अक्षत, शंखध्वनि
— तत्त्वार्थसूत्र अ. १, सू. १
१०. सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः । ११.
"नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥"
१२. (क) असंजमाउ नियत्ती, संजमम्मि य पवित्ती ।
(ख) असंजमे नियत्तिं च संजमे पवित्तिं च जाण चारितं ॥ १३. अहिंसागहणे पंचमहव्वयाणि गहियाणि भवंति, संजमो पुण तीसे चेव अहिंसाए ।
१४. 'अहिंसातवसंजमलक्खणे धम्मे ठिओ तस्स एस निद्देसोत्ति ।'
१५. (क) मंग्यते हितमनेनेति मंगलं, मंग्यतेऽधिगम्यते साध्यते इति ।
(ख) मंगं सुखं लातीति मंगलम् ।
-उत्तराध्ययन अ. २८, गा. ३० — जि. चू., पृ. १७
— जि. चू., पृ. १५ हारि वृत्ति, पत्र ३ — नन्दीसूत्र मलयवृत्ति