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इस अध्ययन में साधक को साधना में स्थिर करने हेतु अठारह सूत्र दिए हैं। वे सूत्र साधक को साधना में स्थिर कर सकते हैं। गृहस्थाश्रम में विविध प्रकार की कठिनाइयां हैं, उन कठिनाइयों को पार करना सहज नहीं है। मानव कामभोगों में आसक्त होता है और सोचता है कि इनमें सच्चा सुख रहा हुआ है, पर वे कामभोग अल्पकालीन और साररहित हैं । उस क्षणिक सुख के पीछे दुःख की काली निशा रही हुई है। संयम के विराट् आनन्द को छोड़कर यदि कोई साधक पुनः गृहस्थाश्रम को प्राप्त करने की इच्छा करता है तो वह वमन कर पुनः उसे चाटने के सदृश है। संयमी जीवन का आनन्द स्वर्ग के रंगीन सुखों की तरह है, जबकि असंयमी जीवन का कष्ट नरक की दारुण वेदना की तरह है। गृहस्थाश्रम में अनेक क्लेश हैं, जबकि श्रमण जीवन क्लेशरहित है। इस प्रकार इस अध्ययन में विविध दृष्टियों से संयमी जीवन का महत्त्व प्रतिपादित है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में गृहस्थाश्रम को महत्त्व दिया गया है। आपस्तंभ धर्मसूत्र में गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ आश्रम कहा है। मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से लिखा है कि अग्निहोत्र आदि अनुष्ठान करने वाला गृहस्थ ही सर्वश्रेष्ठ है। २०८ वही तीन आश्रमों का पालन करता है। महाभारत में भी गृही के आश्रम को ज्येष्ठ कहा है । २०९ किन्तु श्रमणसंस्कृति में श्रमण का महत्त्व है। वहां पर आश्रम व्यवस्था के सम्बन्ध में कोई चिन्तन नहीं है। यदि कोई साधक गृहस्थाश्रम में रहता भी है तो उसके अन्तर्मानस में यह विचार सदा रहते हैं कि कब मैं श्रमण बनूं, वह दिन कब आयेगा, जब मैं श्रमण धर्म को स्वीकार कर अपने जीवन को पावन बनाऊंगा। उत्तराध्ययनसूत्र में छद्मवेशधारी इन्द्र और नमि राजर्षि का मधुर संवाद है । इन्द्र ने राजर्षि से कहा- आप यज्ञ करें, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन करायें, उदार मन से दान दें और उसके पश्चात् श्रमण बनें। प्रत्युत्तर में राजर्षि ने कहाजो मानव प्रतिमास दस लाख गायें दान में देता है, उसके लिए भी संयम श्रेष्ठ है अर्थात् दस लाख गायों के दान से भी श्रमणधर्म का पालन करना अधिक श्रेष्ठ है । उसी श्रमण जीवन की महत्ता का यहां चित्रण है। इसलिए गृहवास बन्धन स्वरूप है और संयम मोक्ष का पर्याय बताया गया है। २१० जो साधक दृढ़प्रतिज्ञ होगा वह देह का परित्याग कर देगा किन्तु धर्म का परित्याग नहीं करेगा। महावायु का तीव्र प्रभाव भी क्या सुमेरु पर्वत को विचलित कर सकता है ? नहीं! वैसे ही साधक भी विचलित नहीं होता। वह तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिनवाणी का आश्रय ग्रहण करता है।
गुप्ति: एक विवेचन
जैन परम्परा में तीन गुप्तियों का विधान है। गुप्ति शब्द गोपन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसका तात्पर्य है—खींच लेना, दूर कर लेना, मन-वचन-काया को अशुभ प्रवृत्तियों से हटा लेना । गुप्ति शब्द का दूसरा अर्थ ढकने वाला या रक्षाकवच है। अर्थात् आत्मा की अशुभ प्रवृत्तियों से रक्षा करना गुप्ति है। गुप्तियां तीन हैं—– मनोगुप्ति, वचनगुप्ति,
यति । मन को अप्रशस्त, कुत्सित और अशुभ विचारों से दूर रखना, संरम्भ समारम्भ और आरम्भ की हिंसक प्रवृत्तियों में जाते हुए मन को रोकना मनोगुप्ति है । २११ असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं करना, स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति और असत्य वचन का परिहार
२०८. मनुस्मृति ६ / ८९ २०९. ज्येष्ठाश्रमो गृही ।
२१०. बंधे गिहवासे । मोक्खे परियाए ॥
२११. उत्तराध्ययन २४/२
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— महाभारत, शान्तिपर्व, २३/५ — दशवैकालिक चूलिका प्रथम, १२