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परोक्ष, मूलगुणों व उत्तरगुणों का प्रतिपादन किया गया है। अनेक प्रमाण देकर जीव की संसिद्धि की गई है। दशवैकालिकभाष्य दशवैकालिकनियुक्ति की अपेक्षा बहुत ही संक्षिप्त है। चूर्णि
आगमों पर नियुक्ति और भाष्य के पश्चात् शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में गद्यात्मक व्याख्याएं लिखी गईं। वे चूर्णि के रूप में विश्रुत हैं। चूर्णिकार के रूप में जिनदासगणी महत्तर का नाम अत्यन्त गौरव के साथ लिया जा सकता है। उनके द्वारा लिखित सात आगमों पर चूर्णियां प्राप्त हैं। उनमें एक चूर्णि दशवैकालिक पर भी है। दशवैकालिक पर दूसरी चूर्णि अगस्त्यसिंह स्थविर की है। आगमप्रभाकर पुण्यविजयजी महाराज ने उसे संपादित कर प्रकाशित किया है। उनके अभिमतानुसार अगस्त्यसिंह स्थविर द्वारा रचित चूर्णि का रचनाकाल विक्रम की तीसरी शताब्दी के आस-पास है।२२ अगस्त्यसिंह कोटिगणीय वज्रस्वामी की शाखा के एक स्थविर थे, उनके गुरु का नाम ऋषिगुप्त था। इस प्रकार दशवैकालिक पर दो चूर्णियां प्राप्त हैं—एक जिनदासगणी महत्तर की, दूसरी अगस्त्यसिंह स्थविर की। अगस्त्यसिंह ने अपनी वृत्ति को चूर्णि की संज्ञा प्रदान की है "चुण्णिसमासवयणेण दसकालियं परिसमत्तं ।"
___ अगस्त्यसिंह ने अपनी चूर्णि में सभी महत्त्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या की है। इस व्याख्या के लिए उन्होंने विभाषा शब्द का प्रयोग किया है। बौद्ध साहित्य में सूत्र-मूल और विभाषा-व्याख्या ये दो प्रकार हैं। विभाषा का मुख्य लक्षण है—शब्दों के जो अनेक अर्थ होते हैं, उन सभी अर्थों को बताकर, प्रस्तुत में जो अर्थ उपयुक्त हो उसका निर्देश करना। प्रस्तुत चूर्णि में यह पद्धति अपनाने के कारण इसे 'विभाषा' कहा गया है, जो सर्वथा उचित है।
चूर्णिसाहित्य की यह सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि अनेक दृष्टान्तों व कथाओं के माध्यम से मूल विषय को स्पष्ट किया जाता है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूर्णि में अनेक ग्रन्थों के अवतरण दिए हैं जो उनकी बहुश्रुतता को व्यक्त करते हैं।
मूल आगमसाहित्य में श्रद्धा की प्रमुखता थी। नियुक्तिसाहित्य में अनुमानविद्या या तर्कविद्या को स्थान मिला। उसका विशदीकरण प्रस्तुत चूर्णि में हुआ है। उनके पश्चात् आचार्य अकलंक आदि ने इस विषय को आगे बढ़ाया है। अगस्त्यसिंह के सामने दशवैकालिक की अनेक वृत्तियां थीं, सम्भव है, वे वृत्तियां या व्याख्याएं मौखिक रही हों, इसलिए उपदेश शब्द का प्रयोग लेखक ने किया है। भद्दियायरि ओवएस' और 'दत्तिलायरि ओवएस' की उन्होंने कई बार चर्चा की है। यह सत्य है कि दशवैकालिक की वृत्तियां प्राचीनकाल से ही प्रारम्भ हो चुकी थीं। आचार्य अपराजित जो यापनीय थे, उन्होंने दशवैकालिक की विजयोदया नामक टीका लिखी थी। पर यह टीका स्थविर अगस्त्यसिंह के समक्ष नहीं थी। अगस्त्यसिंह ने अपनी चूर्णि में अनेक मतभेद या व्याख्यान्तरों का भी उल्लेख किया है।२४५
२४२. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ६, आमुख पृ. ४ २४३. विभाषा शब्द का अर्थ देखें-'शाकटायन-व्याकरण', प्रस्तावना पृ. ६९ । प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। २४४. दशवैकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते ॥
-भगवती आराधना टीका, विजयोदया गाथा ११९५ २४५. दशवै. अगस्त्यसिंहचूर्णि, २-२९, ३-५, १६-९, २५-५, ६४-४, ७८-२९, ८१-३४, १००-२५ आदि।
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