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विनय, अर्थविनय, कामविनय, भयविनय, मोक्षविनय की व्याख्या है। दशम अध्ययन में भिक्षु के गुणों का उत्कीर्तन किया है। चूलिकाओं में रति, अरति, विहारविधि, गृहिवैयावृत्य का निषेध, अनिकेतवास प्रभृति विषयों से सम्बन्धित विवेचना है। चूर्णि में तरंगवती, ओघनिर्युक्ति, पिण्डनिर्युक्ति आदि ग्रन्थों का नामनिर्देश भी किया गया है।
प्रस्तुत चूर्ण में अनेक कथाएं दी गई हैं, जो बहुत ही रोचक तथा विषय को स्पष्ट करने वाली हैं। उदाहरण के रूप में हम यहां एक-दो कथाएं दे रहे हैं—
प्रवचन का उड्डाह होने पर किस प्रकार प्रवचन की रक्षा की जाए ? इसे समझाने के लिए हिंगुशिव नामक वानव्यन्तर की कथा है। एक माली पुष्पों को लेकर जा रहा था। उसी समय उसे शौच की हाजत हो गई। उसने रास्ते में ही शौच कर उस अशुचि पर पुष्प डाल दिए। राहगीरों ने पूछा—यहां पर पुष्प क्यों डाल रखे हैं ? उत्तर में माली ने कहा- मुझे प्रेतबाधा हो गई थी। यह हिंगुशिव नामक वानव्यन्तर है।
इसी प्रकार यदि कभी प्रमादवश प्रवचन की हंसी का प्रसंग उपस्थित
जाय तो उसकी बुद्धिमानी से रक्षा
करें ।
एक लोककथा बुद्धि के चमत्कार को उजागर कर रही है—
एक व्यक्ति ककड़ियों से गाड़ी भरकर नगर में बेचने के लिए जा रहा था। उसे मार्ग में एक धूर्त मिला, उसने कहा—मैं तुम्हारी ये गाड़ी भर ककड़ियां खा लूं तो मुझे क्या पुरस्कार दोगे ? ककड़ी वाले ने कहा— मैं तुम्हें इतना बड़ा लड्डू दूंगा जो नगरद्वार में से निकल न सके। धूर्त ने बहुत सारे गवाह बुला लिए और उसने थोड़ी-थोड़ी सभी ककड़ियां खाकर पुनः गाड़ी में रख दीं और लगा लड्डू मांगने । ककड़ी वाले ने कहा—शर्त के अनुसार तुमने ककड़िया खाई ही कहां हैं ? धूर्त ने कहा— यदि ऐसी बात है तो ककड़ियां बेचकर देखो ।
कड़ियों की गाड़ी को देखकर बहुत सारे व्यक्ति ककड़िया खरीदने को आ गये। पर ककड़ियों को देखकर उन्होंने कहा—खाई हुई ककड़ियां बेचने के लिए क्यों लेकर आए हो ?
अन्त में धूर्त और ककड़ी वाला दोनों न्याय कराने हेतु न्यायाधीश के पास पहुंचे। ककड़ी वाला हार गया और धूर्त जीत गया। उसने पुनः लड्डू मांगा। ककड़ी वाले ने उसे लड्डू के बदले में बहुत सारा पुरस्कार देना चाहा पर वह लड्डू लेने के लिए ही अड़ा रहा। नगर के द्वार से बड़ा लड्डू बनाना कोई हंसी-खेल नहीं था । ककड़ी वाले को परेशान देखकर एक दूसरे धूर्त ने उसे एकान्त में ले जाकर उपाय बताया कि एक नन्हा सा लड्डू बनाकर उसे नगर द्वार पर रख देना और कहना — 'लड्डू ! दरवाजे से बाहर निकल आओ।' पर लड्डू निकलेगा नहीं, फिर तुम वह लड्डू उसे यह कहकर दे देना कि यह लड्डू द्वार में से नहीं निकल रहा है।
इस प्रकार अनेक कथाएं प्रस्तुत चूर्णि में विषय को स्पष्ट करने के लिए दी गई हैं।
टीकाएं
चूर्णि साहित्य के पश्चात् संस्कृतभाषा में टीकाओं का निर्माण हुआ । टीकायुग जैन साहित्य के इतिहास में स्वर्णिम युग के रूप में विश्रुत है। निर्युक्तिसाहित्य में आगमों के शब्दों की व्याख्या और व्युत्पत्ति है। भाष्यसाहित्य में आगमों के गम्भीर भावों का विवेचन है। चूर्णिसाहित्य में निगूढ़ भावों की लोककथाओं तथा ऐतिहासिक वृत्तों के आधार से समझाने का प्रयास है तो टीकासाहित्य में आगमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण है। टीकाकारों ने प्राचीन निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य का अपनी टीकाओं में प्रयोग किया ही है और साथ ही नये हेतुओं का भी उपयोग
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